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दुःख विमुक्ति के लिए ग्रन्थच्छेद
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ही-पूजा करने लग जाता है । आत्मा की पूजा को उपेक्षित और परित्यक्त कर दिया जाता है। इसी दृष्टिकोण को मद्देनजर रखकर अर्हत ऋषि तेतलीपूत्र ने आठवें अध्ययन में इसी ग्रन्थछेच्द पर भार दिया है, ताकि आत्मदेवता की पूजा ठीक तरह से हो सके ।
पूर्वोक्त ग्रन्थ का अर्थ पुस्तक नहीं, किन्तु एक प्रकार की गांठ है जो शरीर से सम्बन्धित है। जिससे वह आत्मदेवता की सेवा-पूजा से दूर हट जाता है, केवल शरीर की ही सेवा-पूजा होती है।
आप कहेंगे कि इन गांठों (ग्रन्थों) को तोड़ने का जहाँ तक प्रश्न है, वह केवल निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी के लिए है, हम गृहस्थों के लिए नहीं है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। आप भी निर्ग्रन्थोपासक हैं-श्रमणोपासक हैं अथवा श्रमण संस्कृति के उपासक हैं । इसलिए आप भी अगर अपनो जीवन सदा के लिए सूखी, सच्चिदानन्दमय बनाना चाहते हैं तो आपको भी इन ग्रंथों का अमुक सीमा में त्याग करना या इन्हें कम करना ही चाहिए। जैसे कि भगवान् महावीर ने गृहस्थ श्रमणोपासक को बाह्यग्रन्थों की सीमा के लिए पाँचवाँ परिग्रह-परिमाणवत, छठा दिशापरिमाणवत एवं सातवाँ उपभोगपरिभोग-परिमाणव्रत, आठवाँ अनर्थदण्डविरण तथा बारहवाँ आतथिसंविभागवत बताए हैं, तथा आभ्यन्तर ग्रन्थ को सीमित करने के लिए पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ व्रत बताया
___ यह तो निर्विवाद है कि श्रमणोपासक के जीवन में अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानी कषाय तथा कुछ अंशों में नोकषाय एवं मिथ्यात्व ये १४ आभ्यन्तर ग्रन्थ कम से कम नहीं होने चाहिए। ये ग्रन्थ होते हैं तो तीव्र अशुभ कर्मबन्ध होते हैं और उनके फलस्वरूप नाना दु:ख भोगने पड़ते हैं।
__ ग्रन्थ-छेदन का उपाय प्रश्न यह है कि इन ग्रन्थियों का-बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों के छेदन करने का उपाय क्या है। अर्हतर्षि केतलीपुत्र ने इसके लिए इस (अष्टम) अध्ययन की प्रथम गाथा में ही संकेत कर दिया है
आरं दुगुणेण, पारं एकगुणेणं ।
केतलोपुत्तेण इसिणा बुइतं ॥१॥ (बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों के छेदन का सर्वोच्च विधेयात्मक उपाय) आरं अर्थात् इस लोक में (मानव को प्राप्त) दो गुणों (ज्ञान और