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अमर दीप
ग्रन्थी से मुक्त नहीं हैं। जिसे निर्ग्रन्थता स्वीकारनी है, उसके अन्तर्मन में यह नाद गूजता रहेगा-मुझे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं चाहिए, मुझे तो आध्यात्मिक निष्ठा प्राप्त करनी है। निर्दम्भता के बिना निर्ग्रन्थता नहीं है, यह बात निर्ग्रन्थ मुनि के हृदय में स्थिर हो जानी चाहिए।
अर्हतर्षि केतलीपुत्र ने ग्रन्थ-छेदन को निर्ग्रन्थ जीवन में अनिवार्य बताते हुए कहा है
इह उत्तमो गंथ-छेयए (चेयए) रह-समिया लुप्पंति। गच्छतो समं वा छिद पावए ॥२॥ सयं वोच्छिदय कम्मसंचयं ।
कोसारकोडेव जहाइ बंधणं ॥४॥ तम्हा एवं वियाणिय गंथजालं दुक्खं दुहावहं छिदिय ठाइ संजमे । से हु मुणी दुक्खा विमुच्चइ धुवं सिवं गई उवेइ ॥५॥
अर्थात्-उत्तम निर्ग्रन्थ वह है, जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों को तोड़ता है, अथवा जानता है। जैसे रथ (शम्या) चक्र से बनी हुई रेखा को पीछे छोड़ता जाता है, इसी प्रकार आत्मारूपी रथ की गमनादि क्रिया के अनुरूप जो शुभाशुभ कर्म का बन्ध होता है, उन पाप कर्मों का छेदन-नाश करो।'
-कोशार नामक रेशम का कीड़ा जैसे स्वयंकृत बन्धन को स्वयं तोड़ता है, उसी प्रकार ग्रन्थछेदक महामुनि भी स्वयं बाँधे हुए कर्मों के बन्धन को स्वयं तोड़ता है। अर्थात्-कोशार कीट की भाँति मुनि बन्धन को तोड़कर स्वयं मुक्त होता है।
-इस प्रकार ग्रन्थजाल को दुःखरूप और दुःख का कारण जानकर निर्ग्रन्थ साधक उसका छेदन करता है और संयम में स्थित होता है । वही (ग्रन्थ-छेदक) मुनि दुःख से सर्वथा मुक्त होता है । और आयुष्य पूर्ण होने पर शाश्वत शिव रूप सिद्धगति (मुक्ति) को प्राप्त कर लेता है। सचमुच रागद्वष की गांठ को तोड़ने वाला उत्तम मुनि लोकबन्धन (संसार के जन्ममरण रूप बन्धन) का त्याग करता है। अन्ध-विच्छेद क्यों और कैसे ?
हाँ, तो निष्कर्ष यह है कि जब व्यक्ति बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों से युक्त हो जाता है, तब वह शरीर को ही, अर्थात्-आत्मदेवता के मन्दिर की