SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुःख विमुक्ति के लिए ग्रन्थच्छेद ९७ यह तो हुई शरीर के लिए बाह्य परिग्रह (ग्रन्थ) की बात। फिर शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति मोह, ममत्व, मूर्छा, लोभ, राग, द्वेष, वासना-कामना आदि होते हैं, उन्हें भी आप शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के रूप में मान लेते हैं। जिस प्रकार धन-धान्य, द्विपदचतुष्पद आदि ६ बाह्य ग्रन्थ (परिग्रह) हैं, उसी प्रकार १४ आभ्यन्तर परिग्रह (चार कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्व) या ग्रन्थ हैं। इन बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों से विरक्त-ममत्वमुक्त रहने वाला 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है । भगवान् महावीर को जैन और बौद्ध ग्रन्थों में 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' कहा गया है। निर्ग्रन्थ साधु को ग्रन्थ-छेदन का उपदेश क्यों ? प्रश्न होता है कि साधु तो निर्ग्रन्थ--ग्रन्थमुक्त होता है, फिर उसे ग्रन्थविमुक्ति का उपदेश क्यों दिया जाता है ? इसके समाधान के लिए हमें जरा तात्त्विक गहराई में उतरना होगा । यद्यपि साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है, तथापि उसने शरीर, वस्त्र, पात्र, पुस्तक तथा अन्य धर्मोपकरण आदि छोड़े नहीं हैं । इन पर से ममता-मूर्छा और आसक्ति छोड़ने के कारण वह निर्ग्रन्थ कहलाता है, परन्तु अगर उसके मन के किसी कोने में इन पर तथा अपने पूर्वाश्रम के सगे-सम्बन्धियों, वर्तमान संन्यासाश्रम के भक्त-भक्ता, श्रावक-श्राविका शिष्य-शिष्या अथवा सम्प्रदाय एवं सम्प्रदायगत साधु-साध्वी के प्रति ममतामूर्जा आ जाती है, या होती है तो वह पुनः ग्रन्थयुक्त हो जाता है । __ अथवा पूर्वाश्रम में भुक्त अथवा साधु जीवन में अकल्पनीय वस्त्र, गन्ध, आभूषण, स्त्रियाँ, शय्या, आसन आदि कामभोगों के प्रति मूच्छित हो जाए तो वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है। निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट या दूर साधु अनेक अशुभ कर्मों का बन्ध तथा चिन्ता, व्याधि आदि नाना दुःखों को आमंत्रित करता है। जिस प्रकार बाह्य उपकरणों तथा सम्बन्धियों के प्रति आसक्ति या ममता ग्रन्थ है, उसी प्रकार राग और द्वष एवं मिथ्यात्व भी आभ्यन्तर ग्रन्थ है। अपने सम्प्रदाय या अपनी परम्परा के प्रति राग और दूसरे सम्प्रदाय या परम्परा के प्रति द्वेष, यह चाहे साधु जीवन में हो, चाहे गृहस्थ जीवन में भयानक ग्रन्थ है । इसी प्रकार के अनेक प्रसंग राग-द्वेष के आते हैं, जब साधु वर्ग भी उसी प्रवाह में बह जाता है, तब निर्ग्रन्थ के बदले वह ग्रन्थयुक्त हो जाता है । निर्ग्रन्थ के जीवन में क्रोध, अभिमान, माया और लोभ, ये चारों आभ्यन्तर ग्रन्थ त्याज्य हैं। आज सामाजिक मान-प्रतिष्ठा के व्यामोह में फंसे हुए निर्ग्रन्थ दम्भ
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy