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दुःख विमुक्ति के लिए ग्रन्थच्छेद
शरीर के सम्बन्ध से आत्मा ग्रन्थयुक्त होता है
धर्मप्रेमी श्रोताजन ! हमारे जीवन के दो भाग हैं। एक भाग शरीर है और दूसरा भाग आत्मा है। दोनों भाग मिलकर हमारा इहलौकिक जीवन बनता है । केवल आत्मा से हम साधना नहीं कर सकते हैं। शरीर साथ में रहता है, तभी हम साधना कर सकते हैं । भारतीय दर्शनों में शरीर
आत्मा का मन्दिर माना है । आत्मा देवता है, शरीर उसका मन्दिर है । यह ठीक है कि शरीररूपी मन्दिर की सारसं भाल होनी चाहिए, परन्तु उससे भी बढ़कर हमें ध्यान रखना है, आत्म-देवता की पूजा का, जो शरीर मन्दिर में विराजमान है ।
आज अधिकांश लोग शरीररूपी मन्दिर की पूजा करते हैं । इसकी भूख और प्यास के लिए, इसके निवास के लिए, इसकी सर्दी-गर्मी वर्षा आदि रक्षा के लिए तथा अन्यान्य आवश्यकताओं- जैसे कि गमनागमन के लिए, आरोग्य आदि के लिए, आवश्यकता से अधिक साधन जुटाये जाते हैं । उदाहरण के तौर पर - शरीर की भूख मिटाने के लिए सादा और स्वास्थ्यकर आहार चाहिए, परन्तु स्वादवश या मोहवश अधिकाधिक चटपटा, गरिष्ठ, पौष्टिक, तामस या राजस आहार जुटाया जाता है । शरीर को रहने के लिए एक मकान चाहिए, पर पांच दस मकान बनाये जाते हैं, अधिकाधिक मकानों पर स्वामित्व एवं ममत्व रखा जाता है । शरीर की रक्षा के लिए थोड़े-से सादे वस्त्र चाहिए. परन्तु आवश्यकता से अधिक वस्त्र - एक से एक भड़कीले, मुलायम, बारीक वस्त्र जुटाये जाते हैं तथा उन सब पर स्वामित्व और ममत्व रखा जाता है । इसके अतिरिक्त धनसम्पत्ति, दुकान, कारखाना; मोटर आदि सवारी, पशु धन, आदि भी शरीर और शरीर से सम्बन्धित परिवार आदि की सुख-सुविधा के लिए जुटाये जाते हैं ।