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६४ अमर दीप कामना, वासना, और प्रमादवृत्ति से दूर रहे
जो साधु या गृहस्थ अपने जीवन में मानसिक एवं शारीरिक सुखशान्ति चाहता है, उसे ऋषि कुर्मापुत्र प्रेरणा देते हैं
आलस्सेणावि जे केदू, उस्सुअत्तं ण गच्छति । तेणावि से सुही होइ, किं तु सिद्धि (सद्धी) परक्कमे ॥४॥ आलस्सं तु परिणाए जाती-मरण-बंधणं ।। उत्तमट्ठ-वरग्गाही, वीरियातो परिव्वए ॥५॥ कामं अकामकारी, अत्तत्ताए परिव्वए ।
सावज्जं णिरवज्जेणं, परिणाए परिव्वएज्जासि ॥६॥
-जो व्यक्ति आलस्यवश भी उत्सुकता (लोकैषणादि इच्छा) के पथ पर नहीं जाता, उससे भी वह सुखी हो सकता है। किन्तु वह अनन्तसुखयुक्त मोक्ष की दिशा में पुरुषार्थ (पराक्रम) करे तब तो कहना ही क्या, वह अवश्य ही सिद्धि (सफलता) प्राप्त कर सकता है।
___ यों तो आलस्य (प्रमाद)-मोक्ष के-कर्ममुक्ति के लिए अपुरुषार्थएक प्रकार से जन्म-मरण के बंधन के रूप में परिज्ञात है। अतः उत्तमार्थ (मोक्ष) ग्राही आत्मा को शक्ति (आत्मबल) के साथ मोक्ष मार्ग की ओर चलना चाहिए।
(सुखप्राप्ति दु:खमुक्ति के लिए) साधक को काम को अकाम बनाकर अर्थात् काम पर विजय प्राप्त करके आत्मा की दिशा में विचरण करना चाहिए । सावध को उसके प्रतिपक्षी निरवद्य सेज्ञ परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से प्रत्याख्यान (त्याग) करे।
निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति के जीवन में कहाँ प्रमाद और कहाँ अप्रमाद पूर्वक पुरुषार्थ होना चाहिए ? इसके लिए उपर्युक्त तीन गाथाओं द्वारा सुखप्राप्ति के सन्दर्भ में बताया गया है कि लोकैषणादि, काम (इच्छाकाम और मदनकाम) अर्थात्-कामना एवं वासना, तथा सावधक्रिया, इनमें साधक पूरुषार्थ न करे, इनमें प्रमादी रहे, तभी वह इनसे होने वाले शारीरिकमानसिक दुःखों से मुक्त होकर सुखी हो सकता है। साधक एकान्त रूप से तभी सुखी हो सकता है, जब वह कर्म-मुक्ति-मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करे, उसमें जरा भी प्रमाद न करे।
पंचम उपाय : अदीनवृत्ति से दुःख सहन करो इच्छाजन्य दुःख पर भी साधक विजय पाए, फिर पूर्वकृत अशुभकर्मवश उसे शारीरिक वेदना-पीड़ा सता सकती है। उस समय वह उक्त