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दुःख-मुक्ति के आध्यात्मिक उपाय
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उक्त आभ्यन्तर तपस्याओं के साथ भी यशोलिप्सा का रहता है । यश का मोह उसे साम्प्रदायिक, धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सभी क्षेत्रों में बेचैन कर डालता है। अगर साधक को तपस्या, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान आदि के साथ प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि न मिली तो वह आन्तरिक दुःख से बेचैन हो उठता है। अशान्ति छाई रहती है, उसके मानस में। इसीलिए कुर्मापुत्र अर्हतर्षि कहते हैं
जणवादो ण ताएज्जा, अस्थित्तं तवसंजमे।
समाहिं च विराहेति, जे रिठ्ठचरियं चरे॥३॥
-तप-संयम के अस्तित्व में भी यदि लोकषणा (जनवाद) है, तो वह साधक की आत्मा की रक्षा नहीं कर सकती, क्योंकि जो साधक लोकषणा आदि अभीष्ट चर्या (इष्टसंयोग की प्राप्ति) में पड़ता है, वह समाधि को भी खो बैठता है।
वास्तव में लोकषणा में पड़ने वाले गृहस्थ या साधु दोनों ही अपनी मानसिक शान्ति (समाधि) को खो बैठते हैं। वे रात-दिन इसी उधेड़ बुन में रहते हैं कि किसी प्रकार से प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा प्राप्त हो। कई बार तो दूसरों को नीचा दिखाकर, उनको झूठ-मूठ बदनाम करके, उस पर अपनी प्रतिष्ठा का महल खड़ा करते हैं। अतः साधक को दुःखमुक्ति या सुखप्राप्ति के लिए लोकषणा रूप इच्छा का निरोध करना चाहिए, यही तप उसकी सुख-शान्ति में वृद्धि करेगा।
सुखशान्ति के लिए निन्द्य आचरण से दूर रहे इस गाथा का एक दूसरा अर्थ भी है, वह भी दुःखमुक्ति या सुखप्राप्ति के उपाय के रूप में घटित होता है।
आक्षिप्त, अर्थात्- (जो संयमपथ से गिर जाता है, पद-पद पर साधुजीवन के मौलिक नियमों के विरुद्ध घृणित आचरण करता है, ऐसे) निन्दित पुरुष-को जनवाद त्यागता नहीं है। अर्थात्-जनसाधारण तीव्ररूप से उसकी निन्दा और भर्त्सना करता है । फलतः ऐसा साधक या गृहस्थ मानसिक दुःख से आक्रान्त होकर तप, संयम और समाधिभाव भी खो देता है, वह कभी हिंसा आदि अनिष्ट आचरण के लिए भी तत्पर हो जाता है।
फलितार्थ यह है, जो साधु या गृहस्थ सुख,शान्ति और समाधि प्राप्त करना चाहता है, उसे जिससे लोकनिन्दा हो, ऐसे निन्दनीय-गर्हणीय आचरण से दूर रहना चाहिये।