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________________ ६२ अमर दीप इसीलिए संत तिरुवल्लुवर ने कहा है-'आपत्तियों का सामना करने के लिए मुस्कान से बढ़कर कोई चीज नहीं है।' यही कारण है कि कुर्मापुत्र अर्हतर्षि ने दुःख को मिटाने का तृतीय उपाय स्वयं दुःख को झेल लेना बताया है। ऐसा साधक स्थूलदृष्टि से तो दुःखी की श्रेणी में आ जाता है, किन्तु वह आवश्यकताओं को सीमित करके, पंचेन्द्रिय विषयों पर संयम एवं कषायों पर विजय प्राप्त करके अन्तर् से अतीव सुखी हो जाएगा। चतुर्थ उपाय : तप के द्वारा दुःख का विनाश व्यक्ति इच्छानिरोधरूप तप की ज्वालाओं से समस्त दुःखों को शमन कर सकता है। दुःख के कारणभूत कर्मों को नष्ट करने के लिए भगवान् ने बाह्य और आभ्यन्तर तप बताएँ हैं। एक व्यक्ति बाह्य तप का अभ्यासी है, वह भूख और प्यास के दुःख को समभाव से सहन करके उस दुःख का निवारण कर सकता है । जो ऊनोदरी, वृत्ति-परिसंख्यान या रस-परित्याग तप का अभ्यासी है, वह अन्न, पान, वस्त्र आदि आवश्यक साधनों के न मिलने, कम मिलने, अथवा मनोऽनुकूल न मिलने पर भी इसे तप समझ कर सन्तुष्ट हो सकता है, यथालाभ सन्तोष मानकर सुखी हो सकता है। शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर भी साधक तप द्वारा उक्त दुःख का निवारण करके सुखी हो सकता है, किन्तु मन की आवश्यकताओं से बहत से साधक खिन्न हो जाते हैं, जैसे कि कई साधकों के मन में यश-कीर्ति, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की लालसा उत्कट रूप में होती है। बहुत-से साधक तो इसके लिए बहुत ही उखाड़-पछाड़ करते रहते हैं। वे तपस्या करते हैं, चातुर्मास करते हैं या कहीं व्याख्यान देने जाते हैं तो पहले से वे तथाकथित भक्तों को तैयार करते हैंपत्रिका छपनी चाहिए, प्रचार होना चाहिए। इसी से धर्म-प्रभावना होती है। सभी पत्र-पत्रिकाओं में इसके समाचार प्रशंसात्मक शब्दों में छपने चाहिए। इस प्रकार वित्तषणा और पुत्रषणा (शिष्यषणा या भक्त षणा) से ऊपर उठ जाने के बाद भी साधक लोकैषणा को नहीं छोड़ सकते। जबकि भगवान् महावीर ने साधकों को स्पष्ट शब्दों में आदेश दिया है न लोगस्सेसणं चरे। -लोकैषणा मैं मन को न रमाए। वर्तमान युग का साधक सेवा (वैयावृत्य तप) भी करता है, बाह्य तप भी करता है, स्वाध्याय-तप भी करता है, ध्यान भी करता है, किन्तु सेवा, तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि का तोल वह यश से करता है। उसका लक्ष्य ,
SR No.002473
Book TitleAmardeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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