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दुःख-मुक्ति के आध्यात्मिक उपाय ६१ दुःख से प्राप्त होता है। दुःखी व्यक्ति-समभावपूर्वक दुःखसहिष्णु व्यक्ति सबमें आत्मीयता के दर्शन करता है। महाभारत में कहा है
विपद: सन्तुः न शाश्वत् तत्र-तत्र जगद्गुरो !।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
-जगद्गुरु प्रभो! हमारे जीवन में सदा विपत्तियाँ आती ही रहें, क्योंकि जन्म-मरण के चक्कर को मिटाने वाले आपके दर्शन विपत्तियों में ही होते हैं।
अंग्रेज विचारक ऑस्टिन मैले का विचार है कि आपत्तियों से बढ़कर और बड़ी शिक्षा नहीं।
राजस्थान के एक मस्त कवि ने कहा हैदुःख है ज्ञान की खान, मनवा दुःख है ज्ञान की खान ।।टेर।। दुःख में ज्ञान-ध्यान बहु उपजे सुख में करत पयान ।। म०॥१॥ दुःख ही शिक्षक है इस जग में, प्रभु का शुभ वरदान । अति उत्तम यह पाठ पढाये, छूट जाय कटु बान ।।म०२ ।। जिसने जग में दुःख नहीं देखा वह कैसा इन्सान । उन्नत पद पर कभी न पहँचे, दुनिया के दरम्यान ॥म० ॥३॥ ज्यों-ज्यों स्वर्ण अगन में डारे, रूप धरे छबिमान । वैसे ही दुःख की भट्टी में, तप कर हो मतिमान ।।म० ॥४॥ कौनं विराना, कौन है अपना, दुःख में पड़त पिछान । दुनिया के कसने की कसौटी, खोने को अभिमान ।म० ॥५॥ दुःख के माहात्म्य का कितना सजीव चित्रण है।
वास्तव में सुख मनुष्य को विलास, प्रमाद और पतन की ओर ले जाता है। जबकि दुःख त्याग, वैराग्य, जागृति और उत्थान की अग्रसर करता है । सुख में वृत्तियाँ बहिर्मुखी और दुःख में अन्तर्मुखी होती हैं। सुख के दिन मस्ती में और दुःख के दिन सुस्ती में व्यतीत होते हैं। सुख में मनुष्य अपनी ही सुनता है, किन्तु दुःख में दूसरों की भी सुनता है । सुख में मनुष्य मदग्रस्त हो जाता है, जबकि दुःख में मद उतर जाता है। सुख में विकारों के आने की सम्भावना है, जबकि दुःख में साधक जागृतिपूर्वक निर्विकारिता की ओर कदम बढ़ाता है।
संसार का इतिहास उठाकर देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि दुःख ने राम, कृष्ण, महावीर, महात्मा गाँधी एवं ईसामसीह आदि को अमर बना दिया, जबकि सुख ने रावण, कंस, दुर्योधन आदि को व्यभिचारी, विलासी, अभिमानी और अन्यायी बनाया है।