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अमर दीप
आन्तरिक शान्ति के लिए जैसे बाह्य सुखों का त्याग करना आवश्यक है, वैसे ही आन्तरिक कषायों का भी त्याग करना आवश्यक है । ज्यों-ज्यों दोनों प्रकार के त्याग करने का अभ्यास बढ़ता जायगा, त्यों-त्यों अन्तर में शान्ति अधिकाधिक वृद्धि होती जायगी। गीता में स्पष्ट कहा है
त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।
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- त्याग करने से तुरन्त शान्ति मिलती है ।
यदि त्याग वैराग्य से शान्ति न मिलती, आत्मिक सुख न मिलता तो तीर्थंकर, चक्रवर्ती या बड़े-बड़े राजा-महाराजा क्यों तथाकथित सुख के इतने साधनों का त्याग करते ? क्यों बाह्य सुखों का परित्याग करते ? उन्हें बाह्य सुखों या सुख-साधनों में वास्तविक सुख की प्रतीति नहीं हुई ।
मनुष्य इच्छाओं की पूर्ति होने से सुख मानता है । परन्तु क्या कभी किसी की समग्र इच्छाओं की पूर्ति हुई है ? अथवा क्या इच्छापूर्ति के पश्चात् भी किसी को स्थायी सुख मिला है ? इच्छा की पूर्ति सुख न होकर दु:ख द्वार खोलती है ।
ओरिसन स्वेट मार्डन अपना अनुभव लिखता है कि मैं एक ऐसी महिला को जानता हूँ जिसके जीवन में दुःखों की अंधेरी रातें आईं, परन्तु वह दुःख के दिनों में भी उत्साहजनक और आनन्ददायक गीत गाकर उन दुःखों को भी सुख में परिणत कर लेती थी ।
लुकमान हकीम बचपन में गुलाम थे । उनके मालिक ककड़ी खा रहे थे । ककड़ी कड़वी थी । थू-थू करके उसने मुह बिगाड़ा और ककड़ी गुलाम लुकमान को दे दी । वह खा गया । मालिक ने आश्चर्य करके पूछा- कड़वी ककड़ी कैसे खा गया तू
?
नौकर ने जबाव दिया - रोजाना आपकी दी हुई अच्छी-अच्छी चीजें भी खाता हूँ तो आज यह क्यों नहीं खाऊ ? आपने ही तो कहा हैपरमात्मा अनेक प्रकार के सुख देता है, उसके हाथ से कभी दुःख भी मिले तो उसे प्रसन्नतापूर्वक भोग लेना चाहिए ।
प्रसन्न होकर मालिक ने लुकमान को गुलामी से मुक्त कर दिया । तृतीय उपायः दुःख की दुष्कर साधना से सुखप्राप्ति
मनुष्य दुःख से दूर भागना चाहता है। किन्तु गहराई से सोचा तो दुःख दुनिया की निकम्मी चीज नहीं है । दुःख सहने से मनुष्य को दूसरे दुखियों के दुख का ज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान भी प्राप्त होता है । वैराग्य भी