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दुःख - मुक्ति के आध्यात्मिक उपाय
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज हम जिस संसार और समाज में जी रहे हैं, उसमें सुख और दुःख की अपनी-अपनी कल्पना है । मनुष्य बाह्य सुख, क्षणिक सुख अथवा पदार्थ जनित मनः कल्पित सुख को सुख मानता है, भले ही उसके पीछे कितना ही दुःख का पुट हो । किसी पदार्थ, परिस्थिति या क्षेत्र - काल में सुख की कल्पना करने वाला मनुष्य उस सुख के कारणभूत माने हुए अभीष्ट पदार्थादि का वियोग होने पर हाय-हाय करता है । अथवा अमुक काल में एक वस्तु सुख देने वाली मान ली जाती है, वही वस्तु दूसरे काल में दुःख देने वाली हो जाती है । स्वस्थ अवस्था में जिस मनुष्य ने मिठाई खाने में सुख माना था, वही व्यक्ति रुग्णावस्था में उसे पाकर दुःखानुभव करता है । जब भी कोई व्यक्ति, प्रसंग या पदार्थ मनुष्य के चित्त में अप्रसन्नता खड़ी कर देता है, तभी वह उसमें दुःख की कल्पना कर लेता है । अर्हतषि कुर्मापुत्र, जिन्होंने गृहीजीवन में रहकर कैवल्य प्राप्त किया था, इस सप्तम अध्यमन दुःख से मुक्त होने पाँच आध्यात्मिक उपाय बताये हैं
अक्षय सुख शान्ति के पाँच सूत्र
सव्वं दुक्खावहं दुक्खं, दुक्खं उत्तणं । दुक्खीव दुक्करचरियं चरित्ता, सव्वदुक्खं खवेति तवसा ॥१॥
(जिन्हें तुमने सुख माना है वे, तथा जो तुम्हें कष्ट देने वाले हैं, वे ) सभी भविष्य में दुःखावह हैं, इसलिए दुःख रूप हैं, ( उन्हें सुख मत मानो ।) उत्सुकता ( अर्थात् -- किसी भी सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति लालसा, आसक्ति या वितृष्णा) ही सबसे बड़ा दुःख है । तथाकथित दुःखी की तरह दुष्करचर्या का आचरण करने से तथा तपस्या से साधक सभी दुःखों का क्षय कर डालता है ।