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________________ (1) अन्नमय कोष यह स्थूल भौतिक शरीर है; और आत्मा का सबसे बाहरी आवरण। इसे अन्नमय कोष इसलिये कहा जाता है कि इसकी वृद्धि और स्थिरता भोजन पर ही निर्भर है। इसी में मांस, अस्थि, वसा आदि होते हैं। यह पूरण-गलन स्वभाव वाला है। जैनदर्शन में इसे औदारिक शरीर कहा गया है। (2) प्राणमय कोष यह आत्मा का दूसरा बाहरी आवरण है। इसी के द्वारा स्थूल भौतिक शरीर की क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। प्राणमय कोष अथवा शरीर के अभाव में स्थूल शरीर शिथिल एवं निर्जीव हो जाता है। स्थूल शरीर पर इसका नियन्त्रण होता है। समस्त इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र) शक्ति रूप से इसमें रहती हैं, स्थूल शरीर में तो उनकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। . सातों चक्रों का स्थान भी मूलत: यही शरीर है। इसका आधार वायु (प्राणवायु) है। श्वासोच्छवास इसकी प्रत्यक्ष क्रियाएँ हैं। योगी अपनी योगसाधना से इस शरीर को ही तेजस्वी बनाता है। जितने भी चमत्कार योगियों द्वारा दिखाये जाते हैं, वे सब इसी शरीर के फलस्वरूप होते हैं। आधुनिक योगी अथवा भगवान कहलाने वाले जो शक्तिपात करते हैं, वह भी इसी शरीर के चमत्कार हैं। सारांश में यह शरीर जीवनी शक्ति का आधार एवं प्रमाण है। जैन दर्शन में इसे तैजस् शरीर कहा गया है। (3) मनोमय कोष . मनोमय कोष मन का स्थान है। इसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की अवस्थिति होती है। इस कोष अथवा शरीर का प्राणमय कोष तथा अन्नमय कोष दोनों पर नियन्त्रण रहता है। दूसरे शब्दों में ये दोनों ही शरीर मनोमय कोष से संचालित होते हैं। __ मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाये तो मनोमय कोष चेतन और अवचेतन-दोनों प्रकार के मन का आधार है। राग-द्वेष, प्रिय-अप्रिय, ईर्ष्या-द्रोह आदि के संवेग इसी मनोमय कोष में संचित रहते हैं और यहीं से उद्भूत होते हैं। बुद्धि की मलिनता और निर्मलता भी इसी मनोमय कोष पर निर्भर रहती है। __ यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि बुद्धि की तीव्रता और मन्दता, प्रखरता और तीक्ष्णता तो प्राणमय कोष पर निर्भर रहती है, यानी जिसका प्राणमय कोष *8 * अध्यात्म योग साधना *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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