SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार वृत्तिसंक्षय की इस व्यापक व्याख्या में योग के समस्त प्रकारों को समन्वित किया गया है। वास्तव में विचार किया जाये तो महर्षि पतञ्जलि के चित्तवृत्तिनिरोधरूप और हरिभद्रसूरि के वृत्तिसंक्षयरूप योगलक्षण में केवल वर्णन और संकेत शैली की विभिन्नता के अतिरिक्त तात्त्विक भेद कुछ भी नहीं है। उक्त योगपञ्चक का आगमसम्मत संवरपञ्चक में अन्तर्भाव तथा अध्यात्म से लेकर वृत्तिसंक्षयपर्यन्त योग के उक्त पाँच भेदों का समवायांग सूत्र में बतलाये गये संवर के 1. सम्यक्त्व', 2. विरति 3. अप्रमत्तता, 4. अकषायता, और 5. अयोगित्व, इन पाँचों भेदों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। यथा - सम्यक्त्व और विरति में अध्यात्म और भावना का, अप्रमत्त और अकषाय भाव में ध्यान और समता का एवं अयोगित्व में वृत्तिसंक्षय का समावेश हो जाता है। इसलिये यह आगमसम्मत योग का ही विशिष्ट. स्वरूप है। समितिगुप्तिस्वरूप- विचारणा जैसे कि प्रथम भी कहा गया है-योग के स्वरूप के योग-निर्णय में मन की समिति और गुप्ति को सब से अधिक विशेषता प्राप्त है। उसके योग के - चित्तवृत्ति - निरोध-लक्षण में जो अड़चन प्राप्त होती है। उसका निराकरण भी समिति - गुप्ति के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने पर ही हो सकता है। समिति मनः समिति में मन की शुभ-प्रवृत्ति प्रधान है और गुप्ति - मनोगुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध मुख्य है। इस प्रकार मन के विषय में समिति - गुप्ति द्वारा सत्प्रवृत्ति, एकाग्रता और निरोध ये तीन विभाग प्राप्त होते हैं। 2 इनमें अध्यात्म और भावनारूप प्रथम के दो योगों में तो सत्प्रवृत्तिरूप मनः समिति का प्राधान्य रहता है और ध्यान तथा समता योग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति की मुख्यता है । एवं वृत्तिसंक्षय नाम के पाँचवें योग में सम्यक्निरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है। इस अवस्था में निरोधरूप गुप्ति को निम्नलिखित तीन भाव प्राप्त होते हैं: 1. 'पंच संवरदारा पण्णत्ता तंजहा सम्मत्तं विरई, अप्पमाया, अकसाया, अयोगया । ' (5 समवाय, सूत्र 10 ) 2. 'प्रवृत्तिस्थिरताभ्यां हि मनोगुप्तिद्वये किल । भेदाश्चत्वारो दृश्यन्ते तत्रान्त्यायां तथान्तिमः ' ।। ( 28 यो. भे. द्वा.) उपाध्याय यशोविजयजी ने मनोगुप्ति के ही शुभप्रवृत्ति और एकाग्रता ये दो विभाग करके अध्यात्म और भावना में शुभप्रवृत्तिरूप ध्यान और समतायोग में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति मानकर वृत्तिसंक्षय में उसका - मन का - सर्वथा निरोध स्वीकार किया है परन्तु इसकी अपेक्षा मन का आगमसम्मत समिति - गुप्ति द्वारा उक्त विभाग अधिक संगत प्रतीत होता है। ❖ 48 →
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy