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________________ की योग्यता के अपगम अर्थात् ह्रास-क्रमशः हानि-को वृत्ति संक्षय कहते हैं। यह वृत्तिसंक्षय ग्रन्थिभेद से आरम्भ होकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण होता है। इसमें आठवें (अप्रमत्त) से बारहवें (क्षीणमोह) गुणस्थान तक में प्राप्त होने वाले शुक्लध्यान के प्रथम के दो भेदों-पृथक्त्ववितर्क-सविचार तथा एकत्ववितर्कअविचार में संप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि-संप्रज्ञातयोग, निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानिर्भासरूप ही है, अतः वह पर्यायरहित शुद्धद्रव्यविषयक शुक्लध्यान में अर्थात् एकत्ववितर्काविचार में अन्तर्मुक्त हो जाता है। और असंप्रज्ञात-योग केवलज्ञान की प्राप्ति से लेकर निर्वाण-प्राप्ति तक में आ जाता है। अर्थात् तेरहवें (सयोगी) और चौदहवें (अयोगी) गुणस्थान में असंप्रज्ञात-योग का अन्तर्भाव हो जाता है। इन दोनों गुणस्थानों में ज्ञानावरणादिं चारों घाति-कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से उत्पन्न कैवल्य-केवलज्ञानदशा-में कर्म-संयोग की योग्यता है और उससे उत्पन्न होने वाली चेष्टारूप वृत्तियों का समूल नाश हो जाता है। यही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-योग है। एवं उसको जो संस्कारशेष कहा गया है। वह भवोपग्राही कर्म के सम्बन्धमात्र की अपेक्षा से समझना चाहिये। सारांश कि तेरहवें गुणस्थान में भवोपग्राही अर्थात् अघाती कर्म का सम्बन्धमात्र शेष रह जाता है। यही संस्कार है। उसी की अपेक्षा से असंप्रज्ञात-योग को संस्कारशेष कहा है, यह समझना चाहिये। क्योंकि इस अवस्था में मतिज्ञान के भेदरूप संस्कार का मूल से नाश हो जाता है। अर्थात् वहाँ वृत्तिरूप भाव मन नहीं रहता। अथवा यों कहो कि केवलज्ञान किंवा असंप्रज्ञात-समाधि के उपलब्ध होने पर वृत्तिरूप भाव मन की आवश्यकता ही नहीं रहती, मन के द्वारा विचार तो केवल मति और श्रुत ज्ञान में ही किया जाता है। बाकी के तीन-अवधि, मनःपर्यव और केवल-ज्ञानों में उसकी-मन की आवश्यकता ही नहीं रहती। इन तीन ज्ञानों में तो आत्मा को स्वयमेव ही-मन की सहायता के बिना-वस्तुतत्त्व के स्वरूप का यथार्थ भान होने लगता है और चौदहवें-अयोग-केवलिगुणस्थान में मन, वचन, काया के स्थूल-सूक्ष्म समस्त योगों-व्यापारों-के निरुद्ध हो जाने पर शैलेशीभाव से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है। यही सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात-समाधि की प्राप्ति के अनन्तर पतञ्जलिप्रोक्त पुरुषार्थशून्य गुणों का प्रतिप्रसव किंवा स्वरूपप्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्ष 1. 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' (यो. 1/18) अर्थात् सर्ववृत्तिनिरोध के कारण परवैराग्य के अभ्यास से संस्कारशेषरूप चित्त की स्थिरता का नाम असंप्रज्ञात-योग है-तात्पर्य कि असंप्रज्ञात-समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का लय हो जाने से संस्कार शेष रह जाता है। 'सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसंप्रज्ञात्ः।' (व्यासभाष्य)। 47 .
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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