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________________ का अन्तर्भाव होता है और वृत्तिसंक्षय नाम के पाँचवें योगभेद में असंप्रज्ञात-योग का समावेश होता है। तात्पर्य कि संप्रज्ञात ध्यान और समता रूप' है तथा असंप्रज्ञात वृत्तिसंक्षयरूप है । संप्रज्ञात -समाधि में राजस तामस वृत्तियों का सर्वथा निरोध होकर केवल सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति का उदय होता है और असंप्रज्ञात -समाधि में सम्पूर्ण वृत्तियों का क्षय होकर शुद्ध समाधि से आत्मस्वरूप का अनुभव होता है । जैनसंकेतानुसार यह असंप्रज्ञात समाधि दो प्रकार की है - सयोगकेवलिकालभाव और अयोगकेवलिकालभावी । इनमें प्रथम तो विकल्प और ज्ञान रूप मनोवृत्तियों और उनके कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के निरोध -क्षय - से उत्पन्न होती है और दूसरी सम्पूर्ण शारीरिक चेष्टारूप वृत्तियों और उनके कारणभूत औदारिकादि शरीरों के क्षय से प्राप्त होती है। पहली में कैवल्य और दूसरी में निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । इस प्रकार पतञ्जलि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात का उक्त अध्यात्मादि योगपञ्चक में अन्तर्भाव निष्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त उपाध्याय यशोविजयजी ने तो अकेले वृत्तिसंक्षययोग में ही इन दोनों संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात योगों का अन्तर्भाव कर दिया है । 1 । उनके विचारानुसार आत्मा की जो स्थूल सूक्ष्म चेष्टाएँ हैं वे ही वृत्तियाँ हैं और उनका कारण कर्म- संयोग की योग्यता है, अतः आत्मा की स्थूल सूक्ष्म चेष्टाएँ और उनके हेतुभूत कर्म- संयोग 1. 'संप्रज्ञातोऽवतरति ध्यानभेदेऽत्र तत्त्वत:' । ( 15, योगावतार द्वा. ) 2. 'असंप्रज्ञातनामा तु संमतो वृत्तिसक्षय:' ( 21 यो. द्वा. ) 3. 'इह च द्विधाऽसंप्रज्ञातसमाधिः, सयोगकेवलिकालभावी अयोगकेवलिकालभावी च । तत्राद्यो मनोवृत्तीनां विकल्पज्ञानरूपाणां तद्बीजस्य ज्ञानावरणाद्युदयरूपस्य निरोधादुत्पद्यते । द्वितीयस्तु सकलाशेषकायादिवृत्तीनां तद्बीजानामौदारिकादिशरीर - रूपाणामत्यन्तोच्छेदात् सम्पद्यते ' । ( यो. वि. व्या. श्लोक. 431 ) ध्यान द्विविधोऽप्ययमध्यात्मभावना समता वृत्तिक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चभेदेऽवतरति । वृत्तिक्षयो हि आत्मनः कर्मसंयोगयोग्यतापगमः, स्थूलसूक्ष्मा ह्यात्मनश्चेष्टावृत्तयः तासां मूलहेतुः कर्मसंयोगयोग्यता, सा चाकरणनियमेन ग्रन्थिभेदे उत्कृष्टमोहनीयबन्धव्यवच्छेदेन तत्तद्गुणस्थाने तत्तत्प्रकृत्यात्यानीकबन्धव्यवच्छेदस्य हेतुना क्रमशोः निवर्तते । तत्र पृथक्त्ववितर्कसविचारैकत्व-वितर्काविचाराख्यशुक्लध्यानभेदद्वये संप्रज्ञातः समाधिः वृत्त्यर्थानां सम्यग् ज्ञानात्..... निर्वितर्कविचारानन्दास्मितानिर्भासस्तु पर्य्यायविनिर्मुक्तः शुद्धद्रव्यध्यानाभिप्रायेन व्याख्येयः।..... क्षपक श्रेणिपरिसमाप्तौ केवलज्ञानलाभस्त्वसंप्रज्ञातः समाधिः, भावमनोवृत्तीनां ग्राह्यग्रहणाकारशालिनीनामवग्रहादिक्रमेण तत्र सम्यक् परिज्ञानाभावात् । अत एव भावमनसा संज्ञाभावात् द्रव्यमनसां च तत्सद्भावात् केवली नोसंज्ञीत्युच्यते । संस्कारशेषत्वं चात्र भवोपग्राहिकर्मांशरूपसंस्कारापेक्षया व्याख्येयम् । मतिज्ञानभेदस्य संस्कारस्य तदा मूलत एव विनाशात् । इत्यस्मन्मतनिष्कर्ष इति दिक्' । (पातञ्जल यो. सू. वृत्ति 1/15 ) 4. - - 46
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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