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________________ तो भौतिक वासनाओं एवं आकांक्षाओं के सघन तमस् से चेतना को मुक्त करना होगा। पुरातन अतीत में भी यथाप्रसंग इस दिशा में प्रयत्न होते रहे हैं। धर्म परम्पराओं ने कभी बहुत अच्छे निर्देशन दिये थे, मानव को मानव के रूप में मानवता के सत्पथ पर गतिशील होने के लिए। पर-लोक से सम्बन्धित नरक-स्वर्ग आदि के उत्तेजक एवं प्रेरणाप्रद उपदेश, व्रत, नियम, तप, पर्वाराधन आदि के ऐसे अनेक धार्मिक क्रियाकाण्ड रहे हैं, जिन्होंने मानव जाति को पापाचार से बचाया है और स्वपर-मंगल के कर्म पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया है। किन्तु विगत कुछ दशाब्दियों में विज्ञानप्रधान युग परिवर्तन से मानव के चिन्तन में ऐसा कुछ मोड़ आया है कि वे पुराने, धार्मिक क्रियाकलाप आज की मानसिक रुग्णता के निराकरण में कारगर उपाय साबित नहीं हो रहे हैं। आज का मानव परलोक से हटकर इहलोक में ही प्रत्यक्षतया कुछ मनोऽभिलषित भव्य एवं शुभ पा लेना चाहता है। यही कारण है कि आज प्रायः सब ओर योग का स्वर मुखरित हो रहा है। देश में ही नहीं, सुदूर विदेशों तक में योग के अनेक केन्द्र स्थापित हो रहे हैं, जहाँ योगासन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि के प्रयोग किये जा रहे हैं। योग की प्राक्तन शास्त्रीय विधाओं के साथ अनेक नई विधाएँ भी प्रचार पा रही हैं। योग, जैसा कि कुछ साधारण लोग समझते हैं, साधना के क्षेत्र में प्रस्तुत युग की कोई नई विद्या नहीं है। योग भारतीय साधना में अन्यत्र कहीं का नवागत अतिथि नहीं; चिर पुरातन है। पुरातन युग में तप, जप, व्रत नियमादि के साथ योग भी सहयोगी रहता था। हर साधना को विकल्पमुक्त एवं अन्तर्निष्ठ करने के लिए एकाग्रता के प्रति गुरु का उद्बोधन निरन्तर चालू रहता था, फलतः साधक जल्दी ही. अभीष्ट की भूमिका पर पहुँच जाता था। परन्तु मध्ययुग में आते-आते साधक व्रत, नियम, तप, जप आदि बाहर के प्रदर्शनप्रधान स्थूल क्रियाकाण्डों में ही उलझकर रह गये। चिन्तन की सूक्ष्मता के अभाव में योग से सम्बन्धित साधना की सूक्ष्मता तिरोहित होती गई। साधक का मन साम्प्रदायिक बन गया और उसके फलस्वरूप कुछ बंधे-बंधाये साम्प्रदायिक क्रियाकाण्डों की पूर्ति में ही वह सन्तुष्ट होकर बैठ गया। __ अतः आज के युग में योग साधना का कोई नया प्रयोग नहीं है अपितु विस्मृत हुए योग का पुनर्जागरण है। अनास्था के इस भयंकर दौर में आस्था की पुनः प्रतिष्ठा के लिए योग सर्वात्मना द्वन्द्वमुक्त एक सात्विक साधन है। योग अन्तरात्मा में परमात्मभाव को तो जगाता ही है, राग-द्वेषादि विकल्पों के कुहासे से आवृत चेतना को तो निरावरण करता ही है, साथ ही मानव के वैयक्तिक, सामाजिक दायित्वों को भी परिष्कृत करता है। चित्त का बेतुका दिशाहीन बिखराव ही समग्र द्वन्द्वों का मूल है। यह बिखराव व्यक्ति को किसी एक विचार, निर्णय एवं कर्म के केन्द्र पर स्थिर नहीं होने देता। मानव मन की स्थिति हवा में दिशाहीन इधर-उधर उड़ती रहने वाली * 426 * परिशिष्ट *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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