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________________ कटी हुई पतंग के समान हो जाती है। अतः इसी सन्दर्भ में अनुत्तरयोगी वीतराग भगवान महावीर ने कहा था- 'अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे' - यह मनुष्य अनेकचित्त है, उसे एकचित्त होना चाहिये। यह एकचित्तता योग का ही सुपरिणाम है। योग साधना व्यक्ति को यथाप्रसंग शीघ्र एवं सही निर्णय पर पहुँचाती है। पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सार्वजनिक निर्णयों के समय में भी प्रसन्नता के साथ अनेकों को एक दिशा देती है। मतभिन्नता में भी उद्विग्नता, खिन्नता एवं उत्तेजना का उद्भव नहीं होने देती है, जिसके फलस्वरूप विग्रह, कलह, वैर तथा तज्जन्य हिंसा आदि की मानसिक विकृतियाँ परस्पर के पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को प्रदूषित नहीं कर पाती हैं। योग वस्तुतः व्यक्ति को देश एवं समाज का एक अच्छा विवेकशील सभ्य नागरिक बनाता है, साथ ही आध्यात्मिक दिशा में भी उसे विकास के उच्चतम शिखरों पर पहुँचाता है। प्रसन्नता है, महामहिम वाग्देवतावतार स्व. आचार्यदेव पूज्य श्री आत्मारामजी . महाराज की योग पर, एवं योग की युग-युगीन उपयोगिता एवं अपेक्षा पर बहुत पहले ही सूक्ष्म दृष्टि पहुँच गई थी। योग के सन्दर्भ में उनकी महत्त्वपूर्ण सुकृति “जैनागमों में अष्टांग योग " " उसी मंगलमयी दृष्टि का सुफल है। स्व. आचार्यदेव केवल लेखन के ही शाब्दिक योगी नहीं थे, अपितु अन्तरात्मा की गहराई में उतरे हुए सहज स्वयंसिद्ध योगी थे। लम्बे समय तक ग्रामानुग्राम विहार एवं चातुर्मास आदि में आचार्यश्री के सर्वाधिक निकट सम्पर्क का सुयोग मुझे मिला है। मैंने देखा है उन्हें ध्यानमुद्रा में अन्तर्लीन समाधिभाव में कितना स्वच्छ, निर्मल क्षीर सागर जैसा जीवन था उनका। उनका साधुत्व ऊपर से ओढ़ा हुआ साधुत्व नहीं था। वह था अन्तश्चेतना में समुद्भूत हुआ स्वतः सिद्ध साधुत्व । उनके मन, वाणी और कर्म सब पर योग की दिव्य ज्योति प्रज्वलित रहती थी। अतः योग के सम्बन्ध में आचार्यदेव की प्रस्तुत रचना शास्त्रीय आधारों पर तो है ही, साथ ही अनुभूति के आधार पर भी है। यही कारण है कि रचना केवल कागजों को ही स्पर्श करके न रह गई, अपितु उसने बिना किसी साम्प्रदायिक भेद-भावना के जन-जन के जिज्ञासु मन को स्पर्श किया है। यही हेतु है कि प्रस्तुत रचना अपने परिवर्धित, परिष्कृत एक नवीन सुन्दर संस्करण के रूप में योग - जिज्ञासु जनता के समुत्सुक नयन एवं मन के समक्ष पुनः समुपस्थित है। - आचार्यश्री के ही अन्य अनेकों लेखों के विस्तृत चिन्तन के आधार पर ही प्रायः प्रस्तुत संस्करण परिवर्द्धित एवं परिष्कृत हुआ है। प्रस्तुत संस्करण के सम्पादन में आचार्यदेव के ही पौत्र शिष्य नवयुग सुधारक, जैन विभूषण, उपप्रवर्तक श्री भण्डारी पद्मचन्द्रजी की प्रेरणा से उनके अपने ही यशस्वी शिष्यरत्न प्रवचनभूषण, श्रुतवारिधि श्री अमरमुनिजी का जो चिरस्मरणीय महत्त्वपूर्ण योगदान है, तदर्थ मुनि श्री शत-शत साधुवादार्ह हैं । पूर्वज अग्रजनों का ऋण वैसे तो कभी मुक्त होता नहीं है; परन्तु जनमंगल के लिए उनकी दिव्य वाणी के प्रचार-प्रसार का यदि किसी भी अंश में, * अभिमत / प्रशस्ति पत्र 427
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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