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| अभिनन्दनम्
मानव विश्व के जीव-जगत् का सर्वोत्तम प्राणी है। भारत के पुरातन धर्मशास्त्रों की दृष्टि में वह स्वर्ग के दैवी जीवन से भी महत्तर है। देव भी स्वर्गानन्तर मानव होने की आकांक्षा रखते हैं।
मानव बाहर में दृश्यमान केवल एक मृत्पिण्ड नहीं है। वह अनन्त चिच्छक्ति का स्रोत है। आध्यात्मिक, मानसिक तथा शारीरिक आदि अनेकानेक दिव्य सिद्धियों का अमृत निर्झर है वह।
प्रश्न है-"यदि वस्तुतः सचमुच में मानव ऐसा ही है, तो फिर वह आज क्यों विपन्न स्थिति में से गुजर रहा है? क्यों वह श्रीहीन, दीन एवं हीन हो रहा है? आज कहां लुप्त हो गया है उसका वह देवाऽभिलषित देवाधिदेवत्व? आज तो वह अमृतनिर्झर नहीं, विषनिर्झर ही हो रहा है।" . आज के मानव की दिव्य चेतना सर्वाधिक क्षोभ एवं आक्रोश में, भय एवं प्रलोभन में जी रही है। एक-से-एक नये प्रलयंकर शस्त्रों की होड़ लगी है, विज्ञान की नित नयी विनाशक आसुरी उपलब्धियों की खोज हो रही है। राजनैतिक दाँवपेच, छल-प्रपंच, अराजकता एवं अव्यवस्था आदि से सामाजिक जीवन सब ओर चौपट हो
रहा है।
जाति, कुल, वंश, देश, प्रान्त, धर्म एवं अन्य विभेदों एवं क्षुद्र स्वार्थों के रूप में आये दिन होने वाले वैर, विद्वेष, घृणा, तिरस्कार, हत्या, चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, मुक्त कामुकता, बलात्कार आदि आसुरी-राक्षसीवृत्ति के सिवा आज के मानव के पास क्या बचा है देवत्व एवं मनुष्यत्व जैसा कल्याणम्-मंगलम्। आज मानव को न दिन में अमन-चैन है, न रात में। न घर में सुख-शान्ति है, न बाहर में। लगता है, एक दावानल जल रहा है और मानव जाति उसमें झुलसती जा रही है। सब ओर तनाव है, दबाव है। मन-मस्तिष्क नानाविध कुण्ठाओं से आक्रान्त है।
उक्त सभी द्वन्द्वों एवं समस्याओं का एक ही समाधान है कि मानव अपने स्वरूप को भूल गया है, अतः उसे पुनः अपने मूल स्वरूप की स्मृति होनी चाहिये। मैं कौन हूँ और वह कौन है, जड़-चेतन से सम्बन्धित ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन के यथार्थ उत्तर में ही मनुष्य की महत्ता का समाधान है। अपने अन्तर् के सोये हुये देवत्व को जगाये बिना अन्य कोई गति नहीं है। मानवीय मूल्यों का जिस तीव्र गति से ह्रास हो रहा है, उसे यदि रोकना है और दृढ़ स्तर पर उनको पुनः प्रतिष्ठापित करना है,
* अभिमत/प्रशस्ति पत्र *425 *