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केन्द्र से ज्ञान केन्द्र में प्राणधारा के प्रवाहित होते समय मध्यवर्ती आनन्द केन्द्र, विशुद्धि केन्द्र भी स्वयमेव जाग्रत हो जाते हैं; शक्ति केन्द्र और ज्ञान केन्द्र तो जाग्रत होते ही हैं।
ज्ञान केन्द्र (आज्ञा चक्र) पर साधक 'अर्ह' को स्फुरायमान होता हुआ देखता है। कभी उसे चंचल और कभी स्थिर करता है। कभी 'अर्ह' पद को आकाशव्यापी देखता है तो कभी उसे अणु के समान अति सूक्ष्म रूप में ध्यान का विषय बनाता है। अणुरूप अहँ अत्यन्त शक्तिशाली श्वेत किरणों का विकीरण करता है। इससे साधक का समस्त ललाट और कपाल (मनःचक्र, सोमचक्र और सहस्रार चक्र) प्रकाशित हो जाता है। परिणामतः ये तीनों चक्र (समष्टि रूप से एक चक्र-सहस्रार) जाग्रत हो जाते हैं।
'अर्ह' पद के जप-ध्यान से ये सम्पूर्ण सातों (अथवा 9) चक्र शीघ्र ही जाग्रत होते हैं। इसका कारण यह है कि ध्वनि शास्त्र की दृष्टि से ह्रस्व (अ)
और प्लुत (ह) दोनों प्रकार की ध्वनियों का इसमें समायोजन है। 'ह' प्लुत ध्वनि महाप्राण ध्वनि है। अतः साधक जब इसका उच्चारण करता है तो उसे प्राण शक्ति (ॐ अथवा 'सोऽहं' के उच्चारण की अपेक्षा) अधिक लगानी पड़ती है। दूसरे शब्दों में, 'अहं' के उच्चारण के समय प्राणशक्ति अधिक ऊर्जस्वी होती है।
उपांशु जप करते समय जब साधक अन्तर्जल्प या सूक्ष्म वचनयोग द्वारा इस मन्त्र का जप-ध्यान करता है तो उसकी ध्वनि तरंगें-भाषा वर्गणा के सूक्ष्म पुद्गल शक्ति केन्द्र (नाभिकमल) से ऊर्ध्वगामी बनकर सीधे आज्ञा चक्र तथा सहस्रार चक्र से टकराते हैं, सम्पूर्ण मस्तिष्क और उसके ज्ञानवाही तन्तु झनझना उठते हैं। भाषा वर्गणा की सूक्ष्म ध्वनि तरंगें विद्युत तरंगों में परिवर्तित हो जाती हैं। परिणामस्वरूप साधक का सम्पूर्ण तैजस् शरीर उत्तेजित हो जाता है-तीव्र गति से परिस्पन्दन करने लगता है। इसका प्रभाव कार्मण शरीर पर भी पड़ता है, उसके प्रकम्पनों की गति भी बढ़ जाती है। भगवान महावीर ने जो कहा है कि साधक अपने शरीर को धुने (धुणे सरीरं) वह स्थिति आ जाती है। परिणाम यह होता है कि तैजस् शरीर स्थित सभी चक्र जागृत-अनुप्राणित हो जाते हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि कर्म निर्जरा अति तीव्र गति से होती है, फलतः आत्म-शुद्धि होती है तथा ज्ञान एवं शरीर सम्बन्धी अनेक विशिष्ट लब्धियों की प्राप्ति होती है।
*394 अध्यात्म योग साधना