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'अहं' का पद विन्यास _ 'अहं' का यदि वर्ण और अक्षरों की अपेक्षा से विन्यास किया जाय तो इसमें 'अ, र्, ह, म्' ये चार वर्ण हैं। इनमें 'अ' वायु तत्व, 'र' अग्नि तत्त्व, 'ह' आकाश और 'म्' अनुस्वार तत्त्व हैं। इस प्रकार इसमें अग्नि, आकाश
और वायु तीनों तत्त्व हैं। अग्नि तत्त्व कर्म-निर्जरा में सहायक है तथा प्राण-शक्ति और प्राण-शरीर को शक्तिशाली बनाता है, वायु तत्व साधक के मनः कोषों को सबल और सक्षम बनाकर मेधाशक्ति को बढ़ाता है, तथा आकाश तत्व साधक में अनेक सद्गुण, कष्टसहिष्णुता, समभाव तथा तितिक्षा भाव की वृद्धि करता है एवं बाह्य अवगुणों तथा सन्तापी तरंगों को उसके आभामण्डल एवं तैजस् शरीर में प्रविष्ट नहीं होने देता। .
अहँ की साधना विधि अहँ की साधना साधक कई रूपों में करता है। सर्वप्रथम वह इसे नाभिकमल में स्थापित करके इसकी साधना तेजोबीज के रूप में करता है। 'अहं' की रेफ को वह रक्तवर्णमय अग्नि के रूप में देखता है और रेफ के ऊर्ध्व भाग से वह अग्नि की चिनगारियाँ निकलते देखता है तथा फिर अग्नि लपटों से कर्म और नोकर्मों को भस्म होते हुए देखता है।
इस रूप में 'अर्ह' कर्म-निर्जरा में सहायक बनता है।
दूसरी प्रकार की साधना विधि में वह 'अर्ह' पद पर ध्यान करता है। आत्म-शुद्धि हेतु वह इसका ध्यान श्वेत वर्ण में चक्षु ललाट में (आज्ञाचक्र में) करता है। . आज्ञाचक्र और मणिपूर चक्र (ज्ञान केन्द्र और शक्ति केन्द्र) का सीधा सम्बन्ध है। साधक 'अर्ह' को शक्ति केन्द्र से उठता हुआ तथा ज्ञान केन्द्र पर पहुँचता हुआ देखता है। प्राण (श्वास) द्वारा चढ़ता हुआ और उच्छ्वास (निश्वास) द्वारा ज्ञान केन्द्र से शक्ति केन्द्र पर आता हुआ देखता है। इस प्रकार साधक एक श्वासोच्छ्वास में 'अर्ह' पद का शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र तक तथा ज्ञान केन्द्र से शक्ति केन्द्र तक का एक चक्कर पूरा कर लेता है। इस प्रकार के असंख्य चक्र साधक करता है, अपनी प्राणधारा को प्रवाहित करता है।
योग की अपेक्षा से शक्ति केन्द्र (नाभिकमल) अत्यधिक महत्वपूर्ण है।. यहीं से शक्ति का जागरण होता है, और वह ऊर्ध्वगामिनी बनती है। शक्ति
• नवकार महामंत्र की साधना • 393 .