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________________ परिणाम-विभाग हो जाते हैं। प्रथम विभाग में समाधि का आरंभ, दूसरे में समाधि की प्राप्ति और तीसरे में समाधि के फलरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है। इसलिये योग की 'चित्तवृत्तिनिरोध' रूप पातंजल व्याख्या समिति-गुप्तिरूप आगम-सम्मत संवर-योग से वस्तुतः पृथक् नहीं है। हरिभद्रसूरि की योग-व्याख्या जैन आचार्य हरिभद्रसूरि ने आगमों के आधार पर योग की जो व्याख्या और विषय-विभाग तथा उसमें जिस विशिष्ट पद्धति का अनुसरण किया है वह दार्शनिक जगत् में बिल्कुल नई वस्तु है। योगविषयक आगमों की प्राचीन वर्णन-शैली को तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार दार्शनिकरूप में परिवर्तित-बदलकर योग का जो सुन्दर स्वरूप योगाभिलाषिणी जनता के समक्ष उपस्थित किया है वह उक्त आचार्य की लोकोत्तर प्रतिभा का ही आभारी है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने सचमुच ही योगविषयक अपनी उदात्त कल्पना से जैन वाङ्मय में एक नवीन युग उपस्थित कर दिया है। इसके प्रमाण में उनके योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका आदि अनेक ग्रन्थरत्न उपस्थित किये जा सकते हैं। योगदृष्टिसमुच्चय में आचार्य ने मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा इन दृष्टियों में योग के सम्पूर्ण प्रतिपाद्य विषय को विभक्त करके योग के प्रसिद्ध यमादि आठ अंगों का (प्रत्येक दृष्टि में प्रत्येक अंग का) बहुत ही सुन्दर एवं सारगर्भित विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त योगबिन्दु में मोक्ष-प्राप्ति के अन्तरंग साधक धर्मव्यापार को योग बतलाकर उसके-(1) अध्यात्म, (2) भावना, (3) ध्यान, (4) समता और (5) वृत्तिसंक्षय, ऐसे पाँच भेद किये हैं। पातंजल दर्शन के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नाम के द्विविध योग को इन्हीं पाँच भेदों से अन्तर्भुक्त कर दिया है। आचार्य के इन पाँच योगभेदों का संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया जाता है: ___ 1. अध्यात्मयोग-जैनागमों में मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्मयोगी-अध्यात्मयोग से युक्त होने की बार-बार चेतावनी दी है क्योंकि चारित्र-शुद्धि के लिये अध्यात्मयोग के अनुष्ठान की मुमुक्षु आत्मा को नितान्त आवश्यकता है। इसी हेतु से आचार्य ने 1. 'अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद्योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम्'।। (31) (योगबिन्दु-हरिभद्रसूरि) 2. (क) अज्झप्पज्झाणजुत्ते-(अध्यात्मध्यानयुक्तः) (प्रश्नव्या. 3. सं. द्वा.) 'अध्यात्मनि आत्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं ध्यानं चित्तनिरोधस्तेन युक्तः' इति व्याख्याकारः। (ख) 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवदिट्ठिए ठिअप्पा'। छा.-(अध्यात्मयोगशुद्धादान उपस्थितः स्थितात्मा) (सूत्रकृतांग, अध्ययन 16, सूत्र 3)। *38*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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