SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म का भी समूल घात होने पर कैवल्य-ज्योति का उदय होना' माना है जिसको केवल-उपयोग कहते हैं। ऐसी आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहलाती है। उसके इस निरावरण ज्ञान में सामान्य और विशेष रूप से विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ करामलकवत् भासमान होते हैं। ___ यहाँ पर इतना और भी ध्यान रहे कि पतंजलि के चित्तवृत्तिनिरोधरूप योगलक्षण से चित्त के विषय में उसकी-(1) सत्प्रवृत्ति, (2) एकाग्रता और (3) निरोध, ये तीन बातें ध्वनित होती हैं। इसका अभिप्राय यह है कि योग में अधिकार प्राप्त करने वाले साधक के लिए चित्त की एकाग्रता के सम्पादनार्थ यम-नियमादिरूप सत्कार्यों में प्रवृत्त होना परम आवश्यक है और चित्त की एकाग्रता से प्राप्त होने वाले संप्रज्ञात-योग में कुछ वृत्तियों का निरोध तो हो जाता है परन्तु सर्व वृत्तियों का सर्वथा निरोध-क्षय नहीं होता, अतः सर्ववृत्तिनिरोधरूप असंप्रज्ञात योग के लाभार्थ निरोधरूप परिणाम की आवश्यकता है। जैन-प्रक्रिया के अनुसार यह विषय मनःसमिति और मनोगुप्ति के स्वरूप में गतार्थ हो जाता है। आगमों में मनःसमिति और मनोगुप्ति के स्वरूप का विवेचन करते हुए समिति-(सं-सम्यक्, इति-प्रवृत्ति) से मन की सत्प्रवृत्ति और गुप्ति से मन की एकाग्रता और मनोनिरोध अर्थ का ग्रहण किया है। अतः समिति-गुप्ति के इस निर्वचन से मन के-प्रवृत्ति, स्थिरता और निरोध, ये तीन 1. 'मोहक्षयाद् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।' (तत्त्वार्थ 10/1) 2. (क) 'यः सर्वज्ञः स सर्वविदिति।' (ख) -खीणमोहस्स णं अरहओ तत्तो कम्मंसा जुगवं खिजति तं जहा-नाणावरणिज्ज दसणावरणिज्जं अंतरातिया' (स्थानांग स्था. 3, उ. 4) छा.-क्षीणमोहस्यार्हतः ततः कर्माशा युगपत् क्षपयन्ति, तद्यथा-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीयमान्तरायिकम्। 3. (क) 'मणेण पावएणं पावकं अहम्मियं दारुणं निस्संसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं मरणभयपरिकिलेससकिलिट्ठ न कयावि मणेण पावतेणं पावगं किंचिक्झिायव्वं एवं मणसमितियोगेण भावितो णं भवति अन्तरप्पा।' (प्रश्नव्या. 1 संवरद्वार) छा.-मनसा पापकन पापकमधार्मिकं दारुणं नृशंसं वधबन्धनपरिक्लेशबहुलं मरणभयपरिक्लेशसंश्लिष्टं न कदापि मनसा पापकेन पापकं किंचिदपि ध्यातव्यमेवं मनः समितियोगेन भावितो भवत्यन्तरात्मा। (ख) 'मणगुत्तयाए णं भंते! जीवे कि जणयइ? भ.-जीवे एगग्गं जणयइ। एगग्गचित्तेणं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ'। (उत्तराध्ययन सूत्र 29/53) छा.-मनोगुप्ततया नु भगवन्! जीवः किं जनयति। मनोगुप्ततया जीवः ऐकाग्र्यं जनयति। एकाग्रचित्तो नु जीवः मनोगुप्तः संयमाराधको भवति। (तत्र मनोनिरोधस्य प्रधानत्वाद्-व्याख्याकारः) तात्पर्य कि मनोगुप्ति से मन की एकाग्रता और एकाग्रता से मन का निरोध होता है। *37*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy