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पातंजल योगव्याख्या का आगमानुसारित्व
जैनागमों में दो प्रकार का धर्म बतलाया है - 1. श्रुत - धर्म, 2. चारित्र - धर्म' | श्रुत-धर्म में वह सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान समाविष्ट है जिसके मनन से साध्यरूप वस्तु-तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का निश्चय होता है और चारित्र - धर्म के सम्यक् अनुष्ठान से उस साध्यरूप वस्तु-तत्त्व की उपलब्धि होती है।
चारित्र - धर्म में द्वादशविध तप और भावना, 17 प्रकार का व्रतादिरूप संयम, क्षमा-मार्दवादि दशविध यति-धर्म और समिति - गुप्तिरूप आठ प्रवचन माताएँ इत्यादि आचरणीय धार्मिक क्रियाएँ गर्भित हैं। इनमें सभी प्रकार के योग और उसके अंगों का समावेश हो जाता है। तथा आस्रव निरोधरूप संवर में योग का उक्त लक्षण भली-भाँति गतार्थ हो जाता है। मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं। उसी की आस्रव संज्ञा है, क्योंकि वह कर्म बाँधने में निमित्तभूत है 2 |
जैन परिभाषा में वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाला आत्मपरिणामविशेष- आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन - कम्पन व्यापार-योग कहलाता है। वह मन, वचन और काया के आश्रित होने से तीन प्रकार का है- मनोयोग, वचनयोग, और कायायोग। इस योगरूप आस्रव का निरोध ही संवर है जिसे पतञ्जलि मुनि ने अपनी परिभाषा में चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग- लक्षण से व्यक्त किया है। जिस प्रकार चित्त की एकाग्र दशा में सत्त्व के उत्कर्ष से बाह्य वृत्तियों का निरोध, क्लेशों का क्षय, कर्मबन्धनों की शिथिलता, निरोधाभिमुखता और प्रज्ञाप्रकर्ष - जनित सद्भूतार्थ- प्रकाश के द्वारा धर्ममेध- समाधि की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार जीवन के आध्यात्मिक विकास-क्रम में उत्तरोत्तर प्रकर्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन आस्रवों का निरोध है । यह जितने - जितने अंश में बढ़ेगा उतने - उतने ही अंश में आत्मगत शक्तियाँ विकसित होंगी। अन्त में आस्रव अथवा योगनिरोधरूप इसी संवर-तत्त्व के उत्कर्ष से ध्यानादि द्वारा आत्मगत मल - विक्षेप और आवरण का आत्यन्तिक विनाश होकर कैवल्य ज्योति का उदय होता है। जैन शास्त्रों में समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र और तपरूप संवर-तत्त्व के सम्यक् अनुष्ठान से निष्कषाय- कषाय-मल से रहित आत्मा में मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय
1. 'दुविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा - सुयधम्मे चेव चारित्तधम्मे चेव' (स्थानांग सूत्र, स्थान 2 उद्दे. 1, सू. 72)
2. 'कम्मं जोगनिमित्तं वज्झइ जोगबंधे, कसायबंधे। '
3. 'वीर्यान्तराय क्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेषः ।।'
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