SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भेद से चार प्रकार का है। सर्वप्रकार की चित्तवृत्तियों का सर्वथा निरोध असंप्रज्ञातयोग इस प्रकार योग को समाधिरूप मानकर उसके संप्रज्ञात, अप्रसंज्ञात ये दो भेद बतलाये हैं। इन्हीं को क्रमशः सबीज और निर्बीज समाधि कहा है। चित्त की एकाग्र-दशा में ध्येय वस्तु का ज्ञान बना रहता है और मन को समाहित रखने के लिए किसी न किसी आलम्बन या बीज की आवश्यकता भी अवश्य रहती है, इसलिये संप्रज्ञात समाधि को सालम्बन या सबीज समाधि कहते हैं। परन्तु जब चित्त की समस्त वृत्तियाँ पूर्णरूप से निरुद्ध हो जाती हैं तब असंप्रज्ञात समाधि का आविर्भाव होता है। उसमें ध्याता-ध्यान-ध्येयरूप त्रिपुटि का विभिन्न रूप से ज्ञान नहीं होता और इसमें किसी भी वस्तु का आलम्बन न रहने से उसे निरालम्बन. या निर्बीज समाधि कहा गया है। असंप्रज्ञात-योग के भी भव-प्रत्यय और उपायप्रत्यय ये दो प्रकार बतलाये हैं। इनमें उपाय-प्रत्यय समाधि ही वास्तविक समाधि है। उसकी प्राप्ति श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के लाभ से होती है। यह कथन योगसूत्र और उसके व्यासभाष्य के अनुसार किया गया है। यहाँ पर इतना अवश्य स्मरण रहे कि 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' इस पातंजल सूत्र में सूत्रकार को वृत्तिनिरोध से क्लेशादिकों का नाश करने वाला निरोध ही अभीष्ट है। अन्यथा यत्किचित् वृत्तिनिरोध तो क्षिप्तादि भूमिकाओं में भी होता है परन्तु उसको इनकी योगरूपता कथमपि अभीष्ट नहीं। तब उक्त सूत्र का फलितार्थ यह हुआ कि-क्लेश-कर्म वासना का समूलनाशक जो वृत्तिनिरोध है, उसका नाम योग है। अन्यथा यों कहो कि-चित्तगतक्लेशादिरूप वृत्तियों का जो निरोध उसको योग कहते हैं। इस भाँति पातंजल योगदर्शन में योग को समाधिरूप मानकर उसकी उपर्युक्त व्याख्या की है जो साध्यरूप योग के स्वरूप को समझने में अधिक उपयोगी प्रतीत होती है। 1. (क) 'क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकाग्रं निरुद्धमिति चित्तभूमयः। तत्र विक्षिप्ते चेतसि विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिन योगपक्षे वर्तते। यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति-क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति-निरोधाभिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योगः इत्याख्यायते। स च वितर्कानुगतो विचारानुगतः आनन्दानुगतोऽस्मितानुगत इत्युपरिष्टात्प्रवेदिष्यामः। सर्ववृत्तिनिरोध इत्यसंप्रज्ञातः समाधिः'। (1-1) (ख) 'श्रद्धावीर्य्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्'। (1/20) 'तथा च यद्यपि योगः समाधिः स एव च चित्तवृत्तिनिरोधः स च सार्वभौमः सर्वासु क्षिप्तादिभूमिषु भवः, एवं च क्षिप्तादिष्वतिप्रसंगः तत्रापि हि यत्किञ्चिवृत्तिनिरोधसत्त्वात्, तथापि यो निरोधः क्लेशान् क्षिणोति स एव योगः, स च संप्रज्ञातासंप्रज्ञातभेदेन द्विविधः इति नातिप्रसंग इत्यर्थः' (यो. 1-1 के टिप्पण में स्वा. बालकराम)। *35 .
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy