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बहिर्मुख बना रहता है, अतः सांसारिक विषय-भोगों की ओर ही उसकी अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। मूढ़ अवस्था में तमोगुण की प्रधानता के कारण चित्त सदा विवेक - शून्य रहता है। हेयोपादेय अथवा कर्तव्याकर्तव्य का भान न होने से वह कभी-कभी नहीं करने योग्य कार्यों में भी प्रवृत्त हो जाता है। तीसरी विक्षिप्त अवस्था है। इसमें सत्त्वगुण की अधिकता से रज: प्रधान क्षिप्त अवस्था की अपेक्षा चित् कभी-कभी स्थिरता को धारण करता है सर्वथा नहीं, यही इसमें विशेषता है ' । चित्त की ये तीनों ही अवस्थाएँ योग- समाधि के लिये अनुपयोगी होने से उपादेय नहीं हैं, इसलिये चित्त की एकाग्र और निरुद्ध ये दो अन्तिम अवस्थाएँ ही योगाधिकार में प्रवृत्त होने वाले मुमुक्षु पुरुष के लिये उपादेय मानी गई हैं, कारण कि इन्हीं दो भूमिकाओं में समाधि की प्राप्ति हो सकती है।
जिस समय चित्त बाह्य वृत्तियों के रुक जाने पर एक ही विषय में एकाकार वृत्ति को धारण करता है तब उसको एकाग्र कहते हैं परन्तु इस अवस्था में कुछ अन्तरंग सात्त्विक वृत्तियाँ रहती हैं। उन सब वृत्तियों और तज्जन्य संस्कारों का भी जिस अवस्था में लय हो जाता है वह चित्त की निरुद्ध अवस्था है। सारांश कि एकाग्रचित्त में बाह्य वृत्तियों का तिरोधान होता है और निरुद्धचित्त में सभी वृत्तियाँ विलीन हो जाती हैं 2 |
जैसे कि ऊपर बतलाया गया है, चित्त की इन पाँच भूमिकाओं में पहले की क्षिप्त और मूढ़ ये दो तो समाधि के लिये सर्वथा अनुपयोगी हैं। तीसरी विक्षिप्त - भूमि कुछ-कुछ उपयोगी है और अन्त की दो सर्वथा उपादेय हैं। इन्हीं दोनों भूमियों में समाधि का उदय होता है । तथाच - इन भूमिकाओं के अनुरूप पहली दो मैं व्युत्थान (बहिर्मुखता), तीसरी में समाधि का आरम्भ, चौथी में एकाग्रता और पाँचवीं में निरोध, इस प्रकार चित्त के चार परिणाम सम्भव होते हैं। इनमें सत्त्व के उत्कर्ष से चित्त की एकाग्रता लक्षण परिणत होने पर साधक आत्मा सद्भूत अर्थ का प्रकाश करती है- परमार्थभूत ध्येय वस्तु का साक्षात्कार करती है, चित्तगत क्लेशों को दूर करती है, कर्मबन्धनों को शिथिल और निरोध को अभिमुख करती है, इसी का नाम संप्रज्ञात- योग है। और वह वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत
'विक्षिप्तं-क्षिप्ताद्विशिष्टं, विशेषोऽस्थेमबहुलस्य कादाचित्कः स्थेमा ।' (तत्त्व- वैशा. टी. वाचस्पति मिश्र 1-1 )
2. 'एकाग्रे बहिवृर्त्तिनिरोधः । निरुद्धे च सर्वासां वृत्तीनां संस्कारणां च इत्यनयोरेव भूम्योर्योगस्य सम्भव: । ' ( 1-2 भोजवृत्ति:)
3. 'सम्यक् प्रज्ञायते क्रियते ध्येयं यस्मिन्निरोधविशेषे सः संप्रज्ञातः' अर्थात् जिसमें साधक को अपने ध्येय का भलीभांति साक्षात्कार होता है उसका नाम संप्रज्ञात है । ( 1-1 टिप्पणबालकरामस्वामी)।
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