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योग शब्द आगमों में प्रयुक्त हुआ है। और प्रस्तुत योग के अर्थ में आगमों में बहुधा ध्यान या समाधि शब्द का उल्लेख किया गया है जिसका वर्णन आगे मिलेगा। योग की पातञ्जल व्याख्या
वैदिक सम्प्रदाय के योगविषयक सर्वमान्य पातञ्जल दर्शन में योग का समाधि अर्थ बतलाकर उसको–योग को - समाधिरूप माना है' और चित्तवृत्ति निरोध उसका लक्षण किया है। तात्पर्य कि चित्त की जिस अवस्थाविशेष में प्रमाण विपर्ययादि वृत्तियों का निरोध होता है उस अवस्थाविशेष का नाम योग है । इस विषय का खुलासा इस प्रकार है:
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' इस सूत्र में उल्लिखित चित्त शब्द से अन्त:करण अभिप्रेत है। सांख्ययोग मत के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का परिणाम होने पर चित्त भी त्रिगुणात्मक सत्त्वरजस्तमोरूप है। परन्तु इतना स्मरण रहे कि - अन्य प्रकृति-परिणामों की अपेक्षा चित्त में सत्त्व गुण का अधिक उदय होता है। इस प्रकार सत्त्वादि गुणों की न्यूनता - अधिकता से चित्त की उच्चावच्च अनेक अवस्थाएँ होती हैं। जिन्हें भूमिकाओं के नाम से निर्दिष्ट किया गया है । चित्त की ऐसी भूमिकाएँ पाँच मानी हैं - (1) क्षिप्त, (2) मूढ़, (3) विक्षिप्त, ( 4 ) एकाग्र और (5) निरुद्ध ।
क्षिप्त-अवस्था में रजोगुण के प्राधान्य से चित्त सदा चंचल - अस्थिर और
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नव (9) आगमों में प्रयुक्त होने वाले योग, प्रयोग और करण - ये तीनों शब्द एक ही अर्थ में ग्रहण किये गये हैं ऐसी व्याख्याकारों की सम्मति है
(क) योग : - युज्यते जीवः कर्मभिर्येन - 'कम्मं जोगनिमित्तं वज्झइति वचनात् युक्ते वा प्रयुङ्क्तेयं पर्य्यायं स योगो वीर्यान्तरायक्षयोपशमः जनितो जीवपरिणामविशेष इति ।...मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो - वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिका द्रव्यवदुपष्टम्भकरोमनोयोग इति।...मनसो वा योगः करणकारणानुमतिरूपी व्यापारो मनोयोगः ।
(ख) प्रयोगः - मनःप्रभृतीनां व्याप्रियमाणानां जीवेन हेतुकर्तृभूतेन यद्व्यापारणं प्रयोजनं स प्रयोगो मनसः प्रयोगो मनःप्रयोगः ।
(ग) करणम् - क्रियते येन तत्करणं मननादिक्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मनः उपकरणभूतः तथा परिणामवत् पुद्गलसंघात इति भावः । तत्र मनसः एव करणं मनःकरणमिति । अथवा योगप्रयोगकरणशब्दानां मनःप्रभृतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूत्रेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामेषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात् '। (स्थानांग सूत्र 3 स्था. की वृत्ति) ।
2. 'योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः ।
3. ' योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः '।
4. 'निरुध्यन्ते यस्मिन् प्रमाणादिवृत्तयोऽवस्थाविशेषे चित्तस्य सोऽवस्थाविशेषो योगः'। (वाचस्पतिमिश्र)
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