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________________ क्योंकि सयोग एवं अयोग केवली दशा में भी भवोपग्राही कर्मों का सम्बन्ध तो आत्मा के साथ रहता ही है और यही कैवल्य दशा में संस्कार है। . कैवल्य दशा अथवा असंप्रज्ञात समाधि की अवस्था में भाव-मन तो रहता ही नहीं और मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यव ज्ञान के भेद रूप संस्कारों का भी समूल नाश हो जाता है। दूसरे शब्दों में, इस दशा में वृत्तिरूप मन रहता ही नहीं अथवा यों भी कह सकते हैं कि कैवल्य दशा में आत्मा को किसी भी पदार्थ को जानने के लिए मन की आवश्यकता ही नहीं रहती। फिर मति और श्रुतज्ञान ही तो मन' की अपेक्षा रखते हैं। शेष तीन ज्ञान-अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान में तो मन की आवश्यकता ही नहीं होती। इन तीन ज्ञानों से तो आत्मा को स्वयमेव ही-मन की सहायता के बिना-वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। अतः वृत्तिरूप मन अथवा भाव मन के संस्कारों का तो कैवल्य दशा में प्रश्न ही नहीं है; हां, भवोपग्रही कर्मों के सम्बन्ध से होने वाले संस्कार अवश्य शेष रहते हैं। ये संस्कार भी चौदहवें अयोग-केवली गुणस्थान में मन-वचन-काया के स्थूल-सूक्ष्म समस्त योगों के निरुद्ध हो जाने से निःशेष हो जाते हैं और शैलेशीभाव से निर्वाण पद की प्राप्ति हो जाती है। . निर्वाण-प्राप्ति का यही क्रम पातंजल योगदर्शन में भी स्वीकार किया गया है-साधक को जब पर-वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, तब स्वभाव से ही चित्त संसार के पदार्थों की ओर नहीं जाता, वह उनसे स्वयमेव ही उपरत हो जाता है। उस उपरत अवस्था की प्रतीति ही विराम-प्रत्यय है। इस उपरति की प्रतीति का भी अभ्यास क्रम जब बन्द हो जाता है, तब चित्त की वत्तियों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उस समय सिर्फ अन्तिम उपरत अवस्था के संस्कारों से युक्त चित्त रहता है। उन संस्कारों के कारण उस चित्त की 1. तत्त्वार्थ सूत्र 1/24 2. पातंजल योगदर्शन 1/18 का भाष्य 3. तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी। तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः। -पातंजल योगसूत्र 1/50-51 4. पातंजल योगसूत्र 1/20 * 310 * अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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