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________________ गुणस्थान में साधक ग्रन्थिभेद करता है और वह शुक्लध्यान के प्रथम भेद पृथक्त्ववितर्क सविचार ध्यान की साधना में प्रविष्ट होता है। ___ ग्रन्थिभेद के पश्चात् वृत्तियों का संक्षय करता हुआ साधक गुणस्थान क्रमारोह करके बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में पहुँचता है। वहाँ वह शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान की साधना में तल्लीन रहता है। उसकी चित्तवृत्तियाँ इतनी निश्चल और ध्यान इतना स्थिर हो जाता है कि वह एक ध्येय पर ही निर्वात दीपशिखा के समान निष्कंप-स्थिर रहता इस प्रकार शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों (पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार) में पातंजलयोग वर्णित सम्प्रज्ञात समाधि का समावेश हो जाता है। इसका कारण यह है कि सम्प्रज्ञात योग-समाधि सवितर्क-विचार-आनन्दअस्मिता-निर्भास रूप ही हैं, अतः वह पर्यायान्तर रहित शुद्ध द्रव्य विषयक शुक्लध्यान में अर्थात् शुक्लध्यान के दूसरे भेद एकत्ववितर्क अविचार ध्यान में समाविष्ट हो जाती है। इसके उपरान्त असम्प्रज्ञात समाधि के प्रथम भेद का समावेश सयोग-केवली अवस्था में हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने जो असम्प्रज्ञात समाधि को संस्कारशेष' कहा है; उसे जैन दर्शन की दृष्टि से भवोपग्राही कर्मों की अपेक्षा से समझना चाहिए। 1. विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः। -पातंजल योगसूत्र 1/18 सर्ववृत्तिप्रत्यस्तसमये संस्कारशेषो निरोधश्चित्तस्य समाधिरसम्प्रज्ञातः। -व्यास भाष्य अर्थात् सर्ववृत्तिनिरोध के कारण पर-वैराग्य के अभ्यास से संस्कारशेष चित्त की स्थिरता का नाम असम्प्रज्ञात समाधि है-तात्पर्य यह है कि असम्प्रज्ञात समाधि में निरुद्धचित्त की समस्त वृत्तियों का लय हो जाने से मात्र संस्कार शेष रह जाता है। आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय-ये चार कर्म भवोपग्राही कहलाते हैं; क्योंकि ये आत्मा को उसी शरीर में अथवा उसी जन्म में टिकाये रखते हैं। इनके नाश होने पर ही कैवल्य-प्राप्त आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति होती है। • शुक्लध्यान एवं समाधियोग * 309 *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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