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________________ योग के व्युत्पादन में उसके ध्यान और समाधि ये दो अर्थ फलित होते हैं। इनका निर्देश ध्यान-योग और समाधि-योग के नाम से किया जा सकता है। ध्यान-योग में प्रणिधानरूप मनःसमिति से चित्त की एकाग्रता का सम्पादन होता है और समाधि-योग में मनोगुप्ति के द्वारा उसकी स्थिरता सम्पन्न होती है-चित्त का निरोध सम्पन्न होता है; तात्पर्य है कि मानसिक एकाग्रता ही व्यक्त होती है। संक्षेप में कहें तो चित्त की एकाग्रता परिणति-ध्यान और स्थिरता परिणाम-समाधि है। इस प्रकार इन दोनों का साध्य-साधनभाव कल्पित होता है। परन्तु इनके स्वरूप के विषय में कुछ अधिक परामर्श किया जाये तो इनकी-ध्यान-समाधि की-साध्य-साधनभेद. से विभेद-कल्पना कुछ वास्तविक प्रतीत नहीं होती। वास्तव में तो समाधि, यह ध्यान की परिपक्कता अथच ध्यानाभ्यास से प्राप्त होने वाला चित्तवृत्ति का अस्पन्दनमात्र ही है। जैनसंकेतानुसार तो शुक्ल-ध्यान के पादचतुष्ट्य में ही समाधि का तिरोधान हो जाता है अतः समाधि, यह ध्यान की अवस्थाविशेष ही है। सारांश कि समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न योगार्थ में समाधि और ध्यान ये दोनों ही गर्भित हो जाते हैं। अब रहा संयोगार्थक योग शब्द, सो उसमें योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं, जिनकी साधक को अपने अन्दर ध्यान अथवा समाधि की योग्यता प्राप्त करने के लिए आवश्यकता होती है। ये सभी आध्यात्मिक शास्त्र की योग-प्रणाली में सब साधन-योग या क्रिया-योग के नाम से अभिहित किये गये हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार साध्य-साधनरूप में योग के समाधि और योग संयोग ये ही दो अर्थ फलित होते हैं। इनमें समाधि साध्य और योग साधन है। इस प्रकार योग और समाधि का पारस्परिक साध्य-साधनभाव संकलित होता है। यहाँ पर इतना ध्यान रहे कि समाधि में जो साध्यत्व का निर्देश है वह सापेक्ष-अपेक्षाजन्य है, अर्थात् समाधि के उपायभूत यम-नियमादि की अपेक्षा से उसको साध्य कहा है और परमसाध्य मोक्ष की दृष्टि से तो वह भी मोक्ष का अन्तरंग साधन होने से साधन-कोटि में ही परिगणित है। इस परिस्थति में संयोग और समाधि इन दोनों अर्थों में प्रतिबिम्बित होने वाले योग शब्द का निम्नलिखित अर्थ निष्पन्न होता है-जिसके द्वारा आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सके और जो आत्मा को उसके परम साध्य के साथ संयुक्त करके जोड़ दे, उसका नाम योग है। योग के इन दोनों मौलिक अर्थों में निसर्गतः मोक्ष-साधक धर्मानुष्ठान का ही निर्देश प्राप्त होता 1. तदेतद् ध्यानमेव चाभ्यस्यमानं कालक्रमेण परिपाकदशापन्नं समाधिरित्यभिधीयते-'ध्यानादस्पन्दनं बुद्धेः समाधिरभिधीयते' इति स्कन्धाचार्योक्तिः। (पातञ्जलयोगदर्शन की टिप्पणी में स्वामी बालकराम)। *30.
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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