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त्याग-प्रधान जैन-धर्म के प्रचारक-भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त तीर्थंकर नाम से प्रसिद्ध जितने भी महापुरुष हुए हैं वे सब परम त्यागी, परमतपस्वी, परम निर्मोही, परम ज्ञानी अतएव परम योगी थे। योग की उत्कृष्ट साधना द्वारा ही उन्होंने आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठारूप कैवल्य-विभूति और स्वरूप-प्रतिष्ठा का सम्पादन किया। गृह-त्याग के पश्चात् बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक ध्यान-समाधिरूप इस योगानुष्ठान-से ही चरम तीर्थंकर भगवान् महावीरस्वामी अर्हद्-जगत्पूज्य, जिन-रागद्वेष-विजेता, केवली-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी और तीर्थंकर-धर्मप्रवर्तक बने। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि' के वचनों में योग, सर्वश्रेष्ठ कल्प-वृक्ष, चिन्तामणि-रत्न, सर्व धर्मों में प्रधान और सिद्धिरूप मोक्ष का सृदृढ़ सोपान है। वास्तव में योग ही भयंकर भवरोग के समूलघात की रामबाण औषधि है।
योग-शब्दार्थ __ शब्द-शास्त्र के नियमानुसार युज् धातु से घञ् प्रत्यय के द्वारा योग शब्द निष्पन्न होता है। युज् नाम के दो धातु हैं-एक समाध्यर्थक' दूसरा संयोगार्थक', अतः योग शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य-(युक्तिः, योजनं, युज्यते इति वा योगः) समाधि और संयोग ये दो अर्थ फलित होते हैं। इन दोनों ही अर्थों में योग शब्द प्रयुक्त किया देखा जाता है। समाधि अर्थ में वह साध्यरूप से निर्दिष्ट है और संयोग अर्थ में उसका साधनरूप से परिचय मिलता है। कारण कि समाधि अर्थात् आत्मा की विक्षेपरहित समभाव-परिणतिरूप समाहित अवस्था में चित्त की विशिष्ट प्रकार की एकाग्रता अपेक्षित है, जो कि ध्यान-साध्य है और ध्यान-संयोग के बिना दुर्घट है। तात्पर्य कि समाधि के लिये अपेक्षित मानसिक स्थिरता की प्राप्ति प्रशस्त-ध्यान के बिना नहीं हो सकती है और ध्यान में ध्येय वस्तु के साथ ध्याता के मन का सम्बन्ध भी अनिवार्य है, इसलिये
समाधि के साधनभूत प्रशस्त-ध्यान के सम्पादनार्थ ध्येय और ध्याता का परस्पर में . संयुक्त होना-सम्बद्ध होना-संयोगरूप योग से ही हो सकता है।
1. 'योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो, योगश्चिन्तामणिः परः।
योगः प्रधानं धर्माणं, योगः सिद्धेः स्वयं ग्रहः'।। (योगबिन्दु, श्लो. 37) 2. युज समाधौः। 3. युजिोंगे। 4. (क) योगः समाधिः, सोऽस्यास्ति इति योगवान्।
(उत्तराध्ययन सूत्र बृहद्वृत्ति 11/14) (ख) युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योगः
(ध्यानशतक की वृत्ति में श्री हरिभद्रसूरि)
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