________________
इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर भारतीय धार्मिक महापुरुषों ने इसकी उपयोगिता को स्वीकार करते हुए अपने-अपने दृष्टिकोण से इसका पर्याप्त मात्रा में वर्णन किया है। इसके प्रमाण - सबूत में जैन-धर्म के आगमादि, बौद्ध धर्म के त्रिपिटकादि और वैदिक धर्म के उपनिषदादि ग्रन्थों के शतशः वाक्य उपस्थित किये जा सकते हैं। परन्तु यहाँ पर तो केवल जैन-धर्म के दृष्टिकोण से योग और उसके सुप्रसिद्ध यम-नियमादि अंगों का समन्वय - दृष्टि से विवेचन करना ही अभिष्ट है। इसलिये प्रस्तुत विषय में जैन-धर्म के प्राणभूत प्रामाणिक जैन आगमों का ही अधिक मात्रा में उपयोग करना समुचित है। जैन-धर्म त्याग अथवा निवृत्तिप्रधान धर्म है। उसमें आरम्भ से लेकर अन्त तक निवृत्ति या त्याग मार्ग का ही उपदेश दिया गया है। उसकी - धर्म की - ( अहिंसा, संयम और तप रूप') व्याख्या में योग और उसके सम्पूर्ण अंगों का समावेश हो जाता है तथा उसमें सावद्य-सपाप-प्रवृत्ति का त्याग और निरवद्य-निष्पाप प्रवृत्ति का विधान होने से तदनुमोदित-जैन-धर्मानुमोदित - प्रवृत्ति भी निवृत्तिमूलक ही है। अतः आत्मा - अनात्मा के विवेक से शून्य और रात्रिंदिवा सांसारिक विषय-भोगों में ही आसक्त रहने वाले बहिर्मुख आत्माओं (जीवों) के लिये इस निवृत्तिप्रधान प्रशस्त योगरूप निर्ग्रन्थ-धर्म में कोई स्थान नहीं। उसमें अधिकार तो उन्हीं आत्माओं को प्राप्त है जो सांसारिक विषयभोगों में अनासक्त, कषायविजयी, तपोनिष्ठ और संयमशील हैं एवं जिन्होंने जीवन के परम साध्य मोक्ष-द्वार तक पहुँचने के लिए अपेक्षित आध्यात्मिक विकास की पूर्णता के साधनों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया जो कि अन्यत्र योग अथवा योगांगों के नाम से विख्यात हैं और जिनका जैनागमों में बड़ी ही सुन्दरता से विवेचन किया गया है ( उसका दिग्दर्शन अन्यत्र इसी ग्रन्थ में कराया जावेगा ) । एवं इस
1. 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो'। - दशवैकालिकसूत्र 1/1
2. मन, वचन और शरीर से हिंसक प्रवृत्ति का त्याग (अहिंसा), अहिंसादि पाँच यमों का यथाविधि पालन, चक्षु आदि पाँचों इन्द्रियों की वश्यता, क्रोधादि चार कषायों का जय, मन, वचन और काया के योग-व्यापार-नियमन- उस पर अंकुशता (संयम), 6 प्रकार का बाह्य और 6 प्रकार का आभ्यन्तर तप का अनुष्ठान (तप) ; इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म में योग के समस्त अंग सनिविष्ट हैं। इसके अतिरिक्त तप और संयम की आराधना से राग-द्वेष और तज्जन्य कर्म- बन्धनों का छेदन करके यह आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनता हुआ कैवल्य पद को प्राप्त कर लेता है । 'पलिच्छिदिया णं निक्कम्मदंसी" - तपः संयमाभ्यां रागादीनि बन्धनानि तत्कार्याणि वा कर्माणि छित्वा निष्कर्मदर्शी भवति निष्कर्माणमात्मानं पश्यति तच्छीलश्च निष्कर्मत्वाद्वा अपगतावरणः सर्वदर्शी सर्वज्ञानी च भवति ।
44
( आचारंग अ. 3, उ. 2, सू. 4) इस प्रकार तप और संयम को, साक्षात् व परम्परा से मोक्ष का साधक होने से नामान्तर से योग ही कहना व मानना युक्तियुक्त है। इस विषय का सविस्तार वर्णन आगे किया जावेगा।
❖ 28 ❖