SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामान्यतया उन्हें धर्म-ध्यान कहा जाता है। किन्तु योग की दृष्टि से धर्मध्यान का अभिप्राय कुछ अधिक गहरा है। सामान्यतया धार्मिक अनुचिन्तन और तत्त्व-विचारणा को धर्मध्यान कहा जाता है, और है भी; लेकिन साधक-तपोयोगी साधक का धर्मध्यान तत्त्व-विचारणा और तत्त्व-चिन्तन से और भी गहरा होकर तत्त्व-साक्षात्कार तक पहुँचता है। ध्यानयोगी अपने निर्मल अध्यवसाय की प्रबलता से तत्त्वों के साक्षात्कार में प्रयत्नशील रहता है। वस्तु अनन्त पर्यायात्मक है, अनन्त धर्मात्मक है। ध्यानयोगी साधक अपने ध्यान के लिए किसी भी एक अथवा अनेक गणों, धर्मों तथा पर्यायों को ध्येय बनाकर, उनका आलम्बन लेकर अपने चित्त को उन ध्येयों अथवा आलम्बनों पर एकाग्र करता है; तब उसकी ध्यानयोग साधना सधती है। धर्मध्यान की साधना मोक्ष का परम्परा कारण है, प्रथम सोपान है। तपोयोगी साधक मुक्ति-प्राप्ति के लिए विशिष्ट साधना करता है। साधना की विशिष्टता, ध्याता की योग्यता, ध्यान के अवलम्बन आदि के आधार पर ध्यान के आठ अंग माने गये हैं। . (1) ध्याता-ध्यान करने वाला साधक। साधक के चार लक्षण अथवा गुण शास्त्रों में बताये गये हैं-(क) आज्ञारुचि-यहाँ रुचि का अर्थ दृढ़ विश्वास-गहरी निष्ठा है। साधक को जिनेश्वर देव की आज्ञा, आर्हत् प्रवचन और सद्गुरुओं पर पूर्ण निष्ठा होनी चाहिए। (ख) निसर्गरुचि-आर्हत् धर्म, सर्वज्ञ और सद्गुरुओं की ओर उसकी स्वाभाविक रुचि होनी चाहिए। उसमें किसी प्रकार की लौकिक कामना, दबाव अथवा एषणा नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्वाभाविक रुचि की उपलब्धि साधक को उसके दर्शन-मोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से होती है। (ग) सूत्ररुचि-सूत्र अर्थात् आईत्-प्रवचन को सुनने, समझने और हृदयंगम करने की साधक में तीव्र रुचि होना आवश्यक है; (घ) अवगाढ़ रुचि-साधक की रुचि अत्यन्त गहरी होनी चाहिए। यदि उसकी श्रद्धा, विश्वास आदि ढुलमुल होंगे तो वह ध्यान-साधना में कभी भी सफल नहीं हो सकता। इनके अतिरिक्त साधक के मन-मस्तिष्क में अपने स्वरूप को जानने की तथा संसार से मुक्त होने की प्रबल इच्छा आवश्यक है। साथ ही मन को नियन्त्रित करने, इन्द्रियों को वश में रखने और आत्मा को संवृत रखने की क्षमता भी जरूरी है। * ध्यान योग-साधना * 283*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy