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धारणा का विषय पहले तो स्थूल होता है और फिर सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर होता चला जाता है। ज्यों-ज्यों साधक सूक्ष्म ध्येय पर चित्त को स्थिर करता जाता है, त्यों-त्यों वह प्रगति करता जाता है और चेतन स्वरूप को ध्येय बनाकर उसका साक्षात्कार करने में सक्षम हो जाता है। यह उस साधक की ध्यानावस्था है।
इस प्रकार धारणा, ध्यान की पूर्वपीठिका और चित्त को एकाग्र एवं स्थिर बनाने में सहायक होती है। धारणा और ध्यान में अन्तर
धारणा और ध्यान में इतना अन्तर है कि धारणा में ध्येय के एक देश में साधक अपनी चित्तवृत्ति को स्थापित करता है और ध्यान में उसकी (चित्तवृत्ति की) एकाग्रता निष्पन्न होती है। इसीलिए योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि ने देशविशेष में ध्येय वस्तु के ज्ञान की एकतानता को ध्यान कहा
दूसरे शब्दों में, जिस देशविशेष पर साधक धारणा का अभ्यास करते हुए अपने चित्त को स्थापित करता है, उसमें ध्येय वस्तु का ज्ञान अन्य किसी वस्तु के ज्ञान से अनभिभूत होकर जब एकाकार होता है तब उस साधक का ध्यान निष्पन्न होता है। ध्यान में चित्त की एकाग्रता अत्यन्त अपेक्षित होती है। ध्यान का महत्त्व
ध्यान चित्त की एकाग्रता है। इसीलिए ध्यान, योग का सर्वस्व है, प्राण है और अष्टांग योग के अन्य सभी अंगों से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह सम्पूर्ण योग की आत्मा है।
ध्यान से कर्मों का क्षय बड़ी तीव्रता से होता है। कर्म-राशि को भस्म करने के लिए ध्यान जाज्वल्यमान अग्नि के समान है। इसके प्रकाश में राग-द्वेष-मोह का अन्धकार बड़ी शीघ्रता से विनष्ट होता है। ध्यान से निष्पन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास और आत्मिक विशुद्धि में अभूत-पूर्व प्रगति होती है।
यही कारण है कि जैन आगमों में ध्यान का सविस्तृत वर्णन तो हुआ
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पातंजल योगसूत्र 3/2
*278अध्यात्म योग साधना*