________________
ही है साथ ही साथ आत्म- कैवल्य और आत्मनिर्वाण के साथ उसकी निकटता भी प्रदर्शित की गई है।
ध्यान के भेद-प्रभेद जैन आगमों तथा ग्रन्थों में ध्यान के चार भेद बताये गये हैं- (1) आर्तध्यान, (2) रौद्रध्यान, (3) धर्मध्यान, ( 4 ) शुक्लध्यान ।
इनमें से प्रथम दो-आर्त और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं और बाद के दो–धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान प्रशस्त हैं। अप्रशस्त होने के कारण प्रथम दो ध्यान संसार के कारण हैं, कर्मबन्धन के हेतु हैं और बाद के दो ध्यान संसार से मुक्ति और कर्मक्षय के कारण हैं। प्रथम दो ध्यानों की संज्ञा दुर्ध्यान और अन्तिम दो ध्यानों की संज्ञा सुध्यान भी है।
संसार बन्धन के कारण होने की वजह से प्रथम दो ध्यानों को तप के अन्तर्गत नहीं माना गया और न ही इन्हें योग में गिना गया है। तप के अन्तर्गत सिर्फ धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही आते हैं। अतः तपोयोगी साधक के लिए धर्मध्यान, शुक्लध्यान ही ग्राह्य और उपादेय हैं तथा आर्त- रौद्रध्यान सर्वथा त्याज्य एवं हेय हैं।
फिर भी जैसे दोष को जाने बिना दोष का परिमार्जन नहीं किया जा सकता उसी प्रकार आर्त - रौद्रध्यान को जानना और जानकर उन्हें छोड़ना ध्यानयोगी साधक के लिए अनिवार्य है। इसी हेतु से ध्यान के अन्तर्गत आर्त- रौद्रध्यान का विवेचन हुआ है।
1.
2.
आर्तध्यान
आर्तध्यान के उत्तर भेद चार हैं - (1) इष्टवियोग, (2) अनिष्ट-संयोग,
(क) भगवती 25/7; स्थानांग स्थान 4; औपपातिक सूत्र तपोऽधिकार सूत्र 30 (ख) ज्ञानार्णव 3/28-31, में आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान के (1) अशुभ, (2) शुभ और (3) शुद्ध-ये तीन भेद बताये हैं । किन्तु इन तीनों का आगमोक्त चार ध्यानों में समावेश हो जाता है।
(ग) नमस्कार स्वाध्याय पृष्ठ 275 में ध्यान के 28 भेद भी बताये हैं।
(घ) तत्त्वार्थ सूत्र 9/29-30
(क) भगवती 25/7;
(ख) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30
(ग) स्थानांग, स्थान 4
(घ) तत्त्वार्थ सूत्र, 9/31-34
* ध्यान योग-साधना 279