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को रोकता है, स्थिर करता है तथा मन एवं पवन को भ्रमर के समान गुञ्जारव करता हुआ घुमाता है।
जैन योग-सम्बन्धी ग्रन्थों में और विशेष रूप से आगम ग्रन्थों तथा विक्रम की आठवीं शताब्दी से पूर्व रचित ग्रन्थों में धारणा को धर्मध्यान के एक भेद आलम्बन ध्यान में समाहित किया गया है। आलम्बन की अपेक्षा से धर्मध्यान के तीन भेद किये गये हैं- (1) परावलम्बन, (2) स्वावलम्बन और (3) निरवलम्बन ।
स्वावलम्बन ध्यान में स्वशरीरगत किसी एक स्थान अथवा अनेक स्थानों पर चित्त लगाया जाता है।
राजयोग में धारणा के स्थान पर 'त्राटक' शब्द का प्रयोग हुआ है। योग- प्रदीप नामक ग्रन्थ में त्राटक के तीन भेद बताये गये हैं - ( 1 ) आंतर त्राटक (2) मध्य त्राटक और (3) बाह्य त्राटक।
आंतर त्राटक में साधक अपने भ्रूमध्य, नासाग्र, नाभि आदि स्थानों पर चित्तवृत्ति को लगाता है। धातु अथवा पत्थर - निर्मित वस्तु, काली स्याही आदि के धब्बे पर टकटकी लगाकर देखते रहना मध्य त्राटक है। दीपक, चन्द्र, नक्षत्र, प्रात:कालीन सूर्य आदि दूरवर्ती पदार्थों पर दृष्टि स्थिर करना बाह्य त्राटक है।"
जैन योग में जो 'एगपोग्गलनिविट्ठ दिट्ठी' और 'एगपोग्गलठितीए दिट्ठीए' शब्दों का प्रयोग हुआ है, उसके अन्तर्गत ही योग का धारणा और त्राटक अंग समाहित हो जाता है।
वस्तुतः धारणा, ध्यान की पूर्वभूमिका है। अनादि काल से चंचल मन अचानक ही एक ध्येय पर एकाग्र नहीं हो जाता । धारणा के अभ्यास में साधक मन की चंचलता को सीमित करता है, असंख्य भावों, विचारों और वस्तुओं पर दौड़ते हुए मन को सात - पाँच - तीन- दो स्थानों पर दौड़ाता है और फिर एक स्थान पर उसे रोकने का प्रयास करता है। जब मन एक स्थान पर रुकने का अभ्यस्त हो जाता है तब ध्यान की स्थिति आती है। साधक ध्यान - योगी बनता है।
1.
2.
योग की प्रथम किरण, पृष्ठ 131
धारणा शब्द पिण्डस्थ आदि धारणाओं के लिए भी प्रयुक्त हुआ है, उसका वर्णन इसी अध्याय में आगे किया गया है।
-सम्पादक
* ध्यान योग - साधना 277