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________________ प्रवाह बहिर्मुखी होने के कारण ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक नहीं चल पाता। साधक अपने मन को अन्तर्मुखी बनाने का, एक ध्येय पर टिकाने का प्रयास करता है; किन्तु मन दुष्ट अश्व की भाँति बाहर की ओर दौड़ता है। यद्यपि बार-बार के अभ्यास और वैराग्य की भावना से मन स्थिर होने लगता है। फिर भी अनन्त पर्यायात्मक द्रव्य की किसी एक पर्याय पर साधक का चित्त अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट से कम समय) तक ही स्थिर रह सकता है। हाँ, अनेक पर्यायों का आलम्बन लेने पर, ध्येय बदल जाने पर ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी चल सकता है। ध्यान की पूर्वपीठिका : धारणा साधक अपने चित्त को एक ध्येय पर निश्चल रूप से टिकाने अथवा एकाग्र करने का पूर्ण प्रयास करता है। फिर भी मन चंचल मर्कट के समान एक ध्येय पर टिकता नहीं, इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है। अतः साधक ध्यान की सिद्धि से पहले ध्यान की पूर्वपीठिका के रूप में धारणा का अभ्यास करता है। चित्त को एकाग्र करने के लिए उसको किसी एक-देश-स्थानविशेष पर लगा देना-जोड़ देना धारणा है।' यहाँ 'देश-स्थानविशेष' शब्द नाभि, हृदय, नासिका का अग्रभाग, कपाल, भृकुटि, तालु, आँख, मुख, कान, मस्तक, जिह्वा को अग्रभाग आदि स्थानों का वाचक है। साधक इनमें से किसी एक अथवा क्रमशः सभी पर चित्त को लगाता है। इन स्थानों के अतिरिक्त तान्त्रिक और हठयोग के ग्रन्थों में आधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और अजरामर चक्र-इन सात चक्रों पर भी चित्त को जोड़ने अथवा लगाने का उल्लेख है। हठयोगी साधक इन चक्र-स्थानों पर मन और पवन (प्राण-श्वास) 1. 2. तत्वार्थ सूत्र 9/27 तथा इस सूत्र का भाष्य ध्यानशतक, 4 देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -पातंजल योगसूत्र 3/1 नाभिचक्रेहृदयपुण्डरीके मूर्ध्नि ज्योतिषि नासिकाग्रे जिह्वाग्रे-इत्येवमादिषु देशेषु बाह्ये वा विषये चित्तस्य वृत्तिमात्रेण बन्ध इति धारणा। -व्यास भाष्य *276* अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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