________________
इस प्रकार वृत्तियों के तीन रूप हो जाते हैं, वर्तमान काल सम्बन्धी, भूतकाल सम्बन्धी स्मृति और संस्कार, तथा भविष्य काल सम्बन्धी संकल्प-विकल्पात्मक कल्पनाएँ और चिन्ताएँ। इनमें से भूत-भविष्य सम्बन्धी वृत्तियाँ ध्यानयोगी साधक की ध्यान साधना में अधिक विक्षेप उत्पन्न करती हैं। जब साधक चित्त को एकाग्र करता है, एक ध्येयनिष्ठ करता है तो उसका अवचेतन मन जागृत हो जाता है, उसमें अनेक वर्षों पूर्व के ही नहीं; पूर्वजन्मों के संस्कार भी अंगड़ाई लेकर उठ खड़े होते हैं और साधक के स्मृति पटल पर आकर उसके मानस को विक्षुब्ध कर देते हैं। साधक चकित रह जाता है, सोचता है - ऐसा विचार तो मैंने इस जीवन में कभी किया ही नहीं था । उसका यह सोचना सही भी होता है। लेकिन इन संस्कारों को निर्जीर्ण तो करना ही होता है; क्योंकि बिना संस्कारों (पूर्व जन्मों तक के संस्कार) के नष्ट हुए चित्त-शुद्धि निष्पन्न ही नहीं हो सकती । अतः साधक इन संस्कारों अथवा भूत-भविष्यत्कालीन वृत्ति प्रवृत्तियों की सिर्फ प्रेक्षा करता है, अपने ध्येय से इधर-उधर डगमगाता नहीं, उस पर दृढ़ रहता है और उन वृत्ति - प्रवृत्तियों में राग-द्वेष नहीं करता ।
अनुकूल वृत्ति राग का कारण बनती है और प्रतिकूल वृत्ति द्वेष का । इन दोनों के कारण ही मन का सागर प्रकंपित रहता है, उद्वेलित रहता है, चंचल बना रहता है और ध्यानयोग की दृढ़ता से जब चंचल मन स्थिर हो जाता है तभी साधक को आत्म-दर्शन होता है; तथा मन के प्रसार को रोक देने पर आत्मा परमात्मा बन जाती है। 2
इसीलिए आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने साधक को साधना का सूत्र दिया है - ' वर्तमान क्षण को जानो। तथा वर्तमान कम्पन के प्रेक्षक बनो। ' इन सूत्रों को हृदयंगम कर ध्यान करने वाला साधक सतत जागरूक और अप्रमत्त रहता है।
ध्यान का काल - मान
यद्यपि अध्यात्मयोगी साधक की प्रबल भावना होती है कि वह दीर्घ काल तक ध्यान करता रहे, किन्तु अनादि काल से मन और इन्द्रियों का
1. मणसलिले थिरभूए दीसइ अप्पा तहा विमले।
2.
निग्गहिए मणपसरे अप्पा परमप्पा हवइ ।
3.
इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति अन्नेसी ।
- तत्वसार 41
- आराधनासार 20 - आचारांग 1/5/501
❖ ENAT QÌT-ANEFIT ❖ 275 ❖