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सूर्य की किरणों में आग लगाने की शक्ति मौजूद है किन्तु जब तक वे किरणें बिखरी रहती हैं, आग नहीं लगा सकती; किन्तु आतिशी शीशे के माध्यम से उन किरणों को जब घनीभूत कर लिया जाता है, केन्द्रित करके किसी एक स्थान पर प्रक्षिप्त कर दिया जाता है तो नगर भी भस्म किया जा सकता है। सूर्यकिरणों (सौर ऊर्जा) द्वारा जलाये जाने वाले चूल्हे (Sun stoves) तथा अन्य उपयोग इसी बात के प्रमाण हैं।
इसी प्रकार आत्मशक्ति जब ध्यान-तप के माध्यम से एकीभूत और घनीभूत हो जाती है तो वह ध्यानाग्नि का रूप धारण कर लेती है और कर्ममल को जलाकर आत्मा को उसी प्रकार शुद्ध कर देती है, जिस प्रकार भौतिक अग्नि स्वर्ण में मिले मैल को जलाकर उसे कुन्दन (पूर्णतया शुद्ध स्वर्ण) बना देती है।
जिस तरह किसान गेहूँ कि लिए ही खेती करता है किन्तु उसे भूसा स्वयमेव ही प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अध्यात्मयोगी साधक की अन्तर्दृष्टि स्वयमेव ही जागृत हो जाती है, उसकी लेश्या रूपान्तरिक हो जाती है और आभामंडल स्वच्छ हो जाता है, साथ ही शक्तिशाली भी बनता है तथा साधक को अतीन्द्रिय ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है और उसके चक्रस्थान (चैतन्य केन्द्र) भी जागृत हो जाते हैं।
साधक को ये सब उपलब्धियाँ मन की चंचलता को रोकने से, उसे स्थिर करने से प्राप्त होती हैं। मन की चंचलता को रोकना ही ध्यान-तप का प्रयोजन है। मन की चंचलता के कारण ___मन की चंचलता का प्रमुख हेतु वृत्तियाँ हैं और वातावरण उन बाह्य वृत्तियों की उत्तेजना तथा सक्रियता में सहायक होता है। वृत्तियों का दायरा जितना विस्तृत होगा, जितनी उनकी उत्तेजना अधिक होगी; मन उतना ही अधिक चंचल होगा। इसके विपरीत वृत्तियाँ जितनी क्षीण होंगी, उनका दायरा जितना सीमित और संकुचित होगा; मन भी उतना ही कम चंचल होगा।
वर्तमान काल की प्रवृत्ति अल्पकालीन अथवा क्षणिक होती है। किन्तु उन वृत्ति-प्रवृत्तियों की स्मृति मस्तिष्क में रह जाती है और गहरी वृत्तियों के संस्कार बन जाते हैं। भविष्यकाल सम्बन्धी वृत्ति कल्पना तथा-संकल्प विकल्प, आशा-निराशा, सफलता-असफलता, विभिन्न प्रकार की चिन्ता-दुश्चिन्ता के रूप में होती है।
*274 * अध्यात्म योग साधना *