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________________ निःसंगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की आशा (लालसा) का त्याग।' ___व्युत्सर्ग तप की आराधना करता हुआ तपोयोगी साधक ममत्व-विसर्जन की साधना करता है। व्युत्सर्ग तप के भेद व्युत्सर्ग तप के प्रमुख दो भेद हैं-(1) द्रव्य व्युत्सर्ग और (2) भाव व्युत्सर्ग। द्रव्य व्युत्सर्ग के उत्तर भेद चार हैं-(1) गण व्युत्सर्ग, (2) शरीर व्युत्सर्ग, (3) उपधि व्युत्सर्ग और (4) भक्तपान व्युत्सर्ग। (1) गण व्युत्सर्ग-तपोयोगी साधक की साधना के लिए गण (संघ) एक आलम्बन होता है। वहाँ उसकी साधना सुचारु रूप से चलती है। किन्त साथ ही यह भी सत्य-तथ्य है कि साधक को आत्माभिमुखी साधना के लिए शान्त-एकान्त स्थान अत्यावश्यक है। गण व्युत्सर्ग तप का आशय यह है कि साधक गण में रहता हुआ भी गण के प्रति नि:संग रहे, जैसे जल में कमल। किन्तु यदि किसी कारणवश गण में उसकी साधना सुचारु रूप से नहीं चल पाती, उसकी समाधि भंग होती है तो वह गण का व्युत्सर्ग भी कर सकता है। तपोयोगी साधक के लिए साधना और समाधि ही प्रमुख है; लेकिन जब गण उसी में बाधक बनने लगे तो फिर उसके पास असमाधिकारक गण को छोड़ने के अलावा चारा ही क्या है। लेकिन गण छोड़ने का अभिप्राय साधक का स्वेच्छाचारी हो जाना नहीं है, वह विशिष्ट साधना के लिए गुरुजनों की अनुमति से ही गण छोड़ता है और उनकी अनुमति से वापिस गण में सम्मिलित भी हो जाता है। (2) शरीर व्युत्सर्ग-इस तप का अभिप्राय है-शरीर के प्रति ममत्व का त्याग। इसका अपर नाम कायोत्सर्ग भी है। तपोयोगी साधक एकान्त-शान्त स्थान में शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की तरह सीधा खड़ा हो जाता है, उस समय वह शरीर को न अकड़ाकर 1. नि:संगनिर्भयत्वं जीविताशाव्युदाशाद्यर्थो व्युत्सर्गः। -तत्वार्थराजवार्तिक 9/26/10 *268 * अध्यात्म योग साधना*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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