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(5) धर्मकथा-ज्ञान के परिपक्व होने पर साधक स्वयं तो उससे लाभान्वित होता ही है, अन्यों को भी प्रतिबुद्ध करता है।
स्वाध्याय तप की पूर्णता इन पाँचों अंगों के समन्वय से होती है। स्वाध्याय तप की फलश्रुति
स्वाध्याय तप की आराधना से तपोयोगी साधक को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं
(1) श्रुत का संग्रह होता है।
(2) शिष्य श्रुतज्ञान से उपकृत होता है, वह प्रेम से श्रुत की सेवा करता है।
(3) स्वाध्याय से ज्ञान के प्रतिबन्धक कर्म निर्जरित होते हैं। (4) अभ्यस्त श्रुत विशेष रूप से स्थिर होता है। (5) निरन्तर स्वाध्याय करने से सूत्र विच्छिन्न नहीं होते।
आगम साहित्य के चिन्तन-मनन-अध्ययन से अनेकानेक सद्गुणों का विकास होता है। ज्ञान की वृद्धि, सम्यग्दर्शन की शुद्धि, चारित्र की संवृद्धि होती है और मिथ्यात्व नष्ट होकर सत्य तथ्य को प्राप्त करने की जिज्ञासा वृत्ति जागृत होती है।
(6) बुद्धि निर्मल होती है। (7) प्रशस्त अध्यवसाय की प्राप्ति होती है। (8) शासन की रक्षा होती है। (9) संशय की निवृत्ति होती है। (10) परवादियों के आक्षेपों के निरसन की शक्ति प्राप्त होती है। (11) तप-त्याग की वृद्धि होती है। (12) अतिचारों की शुद्धि होती है। (13) चंचल मन स्थिर होता है। (14) मन की एकाग्रता बढ़ती है। (15) निर्विकारता आती है। (16) संयम में मन स्थिर होता है।
1. स्थानांग 5 2. तत्त्वार्थराजवार्तिक-अकलंकदेव * 266 * अध्यात्म योग साधना .