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________________ तपोयोगी साधक श्रेष्ठ तथा आत्म-कल्याण के मार्गदर्शक ग्रंथों का भी स्वाध्याय करता है और एकान्त-शांत स्थान पर बैठकर अध्ययन किये हुए विषय का चिन्तन, मनन तथा निदिध्यासन भी करता है। साथ ही अपनी आत्मा के विषय में विचार करता है, स्वात्मा को जानने का प्रयास करता है गुरु से अथवा ग्रंथों से सीखे ज्ञान को स्वात्मसंवेदन ज्ञान के रूप में परिणत करता है, आत्मा के ज्ञायक स्वभाव तथा ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख-वीर्य रूप आत्मिक गुणों का स्वसंवेदन करता है। स्वाध्याय तप तब सफल होता है, जब तपोयोगी साधक समस्त विकारों और विभागों से दूर होकर आत्मा के ज्ञान गुण में स्वाद लेने लगता है, उसमें उसे सुख की अनुभूति होने लगती है। स्वाध्याय तप की साधना में निरत साधक इस स्थिति में पहुँचकर मन-बुद्धि-चित्त और इन्द्रियों से परे हो जाता है, अपनी आत्मा के ज्ञानमय स्वरूप का आनन्द लेने लगता है। - वैदिक परम्परा में इस स्थिति का नाम ही विज्ञानमय कोष में साधक की अवस्थिति है। स्वाध्याय के भेद अथवा अंग शास्त्रों में स्वाध्याय के 5 भेद अथवा अंग बताये गये हैं, जो इस प्रकार (1) वाचना-तपोयोगी साधक सद्गुरुदेव से सूत्र पाठ की वाचना लेता है तथा उनके उच्चारण के समान ही उच्चारण करता है। वह हीनाक्षर, अत्यक्षर, घोषहीन, पदहीन आदि दोषों से बचता है। स्वयं भी जब सूत्र-पाठों तथा धर्मग्रन्थों का अभ्यास और स्वाध्याय करता है तब भी उच्चारण आदि के दोष नहीं लगाता, पाठ को समझते हुए वाचना करता है। (2) पृच्छना-जब साधक स्वाध्याय करता है तो उसके मन में विभिन्न प्रकार के प्रश्न उठते हैं। उन प्रश्नों का समाधान वह गुरुदेव से करता है, और विषय को हृदयंगम करता है। (3) परिवर्तना-सीखे हुए ज्ञान की परिवर्तना आवश्यक है, अन्यथा वह ज्ञान विस्मृति के गर्भ में समा जाता है। अतः साधक अपने सीखे हुए ज्ञान को बार-बार दुहराता है। इससे उसका ज्ञान सदा ताजा बना रहता है। (4) अनुप्रेक्षा-अनुप्रेक्षा का अर्थ है चिन्तन-मनन। साधक अपने गृहीत ज्ञान पर बार-बार चिन्तन-मनन करता है, गहराई से उसका अनुशीलन करता है। इससे उसका ज्ञान तलस्पर्शी बन जाता है। * आभ्यन्तर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना * 265 *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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