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(2) विनय तप : अहं विसर्जन की साधना आभ्यन्तर तप का दूसरा अंग है विनय । विनय से अहंकार विगलित होकर हृदय कोमल बन जाता है गुरुजनों एव अपने से छोटे-बड़ों के प्रति आदर बहुमान तथा सम्मान भाव तभी प्रदर्शित किया जा सकता है जब मन में समर्पण एवं भक्ति का अंकुर प्रस्फुटित हुआ हो। जैन आगमों में विनय के सात भेद' बताये गये हैं, यथा
(1) ज्ञान विनय, (2) दर्शन विनय, (3) चारित्र विनय, (4) मनो विनय, (5) वचन विनय, (6) काय विनय और (7) लोकोपचार विनय ।
(1) ज्ञानविनय - तपोयोगी साधक ज्ञान और ज्ञानी दोनों की विनय करता है। ज्ञानविनय से उसका ज्ञान निर्मल होता है और ज्ञान प्राप्ति की ओर उसका आकर्षण बढ़ता है।
इसीलिए ज्ञानविनय के अन्तर्गत वह मतिज्ञानी; श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी की विनय करता है।
1.
(क) औपपातिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30 (ख) भगवती 25/7
(ग) स्थानांग सूत्र 7/585
(घ) तत्वार्थ सूत्र में विनय के चार प्रकार ही बताये हैं
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र 9/23
(च) विनय के विशेषावश्यकभाष्य में 5 प्रकार बताये हैं
(1 ) लोकोपचार विनय- माता-पिता, अध्यापक आदि गुरुजनों का विनय । (2) अर्थ - विनय-धन के लिए सेठ आदि धनवानों, राजा, नेता, आदि का विनय । ( 3 ) कामविनय-काम-भोगों की इच्छापूर्ति के लिए स्त्री आदि का विनय ।
( 4 ) भयविनय - प्राणरक्षा अथवा अपराध हो जाने पर उसका दण्ड न भोगना पड़े। इस उद्देश्य से राज्याधिकारियों तथा समाज- प्रमुखों एवं असामाजिक तत्त्वों का विनय । ( 5 ) मोक्षविनय - आत्मकल्याण हेतु सद्गुरुओं की विनय करना ।
इनमें से प्रथम विनय लोक व्यवहार तथा शिष्टाचार है, वह शुभ कर्मों का हेतु है। दूसरी, तीसरी, चौथी विनय, विनय न होकर चापलूसी है, अशुभ कर्मबन्ध का हेतु है । पाँचवीं विनय ही वास्तविक विनय है, वही तप है क्योंकि कर्मनिर्जरा का कारण
है।
- संपादक
* आभ्यन्तर तप : आत्म शुद्धि की सहज साधना 261