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निष्कपट हृदय से अपने दोषों को प्रकट करके, उनकी शुद्धि के लिए प्रार्थना कर सकता है।
प्रायश्चित्त तपाराधना के लिए साधक का हृदय सरल होना अनिवार्य है। सरल हुए बिना प्रायश्चित्त नहीं हो सकता।
प्रायश्चित्त के भेद
जैन आगमों में प्रायश्चित्त तप के सम्बन्ध में बहुत व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। साधक की सूक्ष्म से सूक्ष्म मनःस्थिति को पकड़कर प्रायश्चित्त के दस भेद व अनेक उपभेद बताये गये हैं। आलोचनार्ह, प्रतिक्रमणार्ह, मिच्छामि दुक्कड' आदि प्रायश्चित्त के विविध प्रकार हैं। प्रायश्चित्त का प्रथम भेद आलोचनार्ह और अन्तिम भेद पारांचिकाई है।
आलोचनार्ह से लेकर पारांचिकार्ह तक के सभी प्रायश्चित्तों का उद्देश्य साधक को दंड देना नहीं, अपितु उसकी दोष - विशुद्धि का लक्ष्य है। साथ ही यह भी है कि दोष कितना भी छोटा या बड़ा हो, उसकी शुद्धि हो सकती है, कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसकी शुद्धि न हो सके।
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'मिच्छामि दुक्कडं', जैन साधना में प्रयुक्त यह शब्द बहुत ही गुरु गंभीर रहस्य को लिये हुए है। तपोयोगी साधक के लिए इस शब्द के रहस्य को जानना अति आवश्यक है।
श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनिर्युक्ति में इस शब्द का निर्वचन करके इसके रहस्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है
'मि' त्ति मिउमद्दवत्ते, 'छ' त्ति दोसाण छादने होइ। 'मि' त्ति अ मेराइ ठिओ 'दु' ति दुगंछामि अप्पाणं ।। 'क' त्ति कडं मे पावं 'ड' त्ति डवेमि तं उवसमेणं । एसो मिच्छा दुक्कड पयक्खरत्थो समासेणं ।।
अर्थात् - 'मि' कार मृदुता से साधक अपने अन्तर्मानस को कोमल तथा अहंकार रहित बनाता है, तथा 'छकार' से साधक दोषों का त्याग करता है, 'मि' कार से वह अपनी संयम मर्यादा को दृढ़ करता है, 'दु' कार से वह अपनी पाप करने वाली आत्मा की निन्दा करता है, 'क' कार द्वारा वह अपने कृत दोषों को स्वीकार करता है और 'ड' कार द्वारा वह उन दोषों का उपशमन करता है, उन्हें नष्ट करता है।
इस प्रकार तपोयोगी साधक 'मिच्छामि दुक्कडं' के उच्चारण के साथ हृदय में दोषों की स्वीकृति, आलोचना, एवं निन्दा करके प्रायश्चित्त तप की साधना करता है।
260 अध्यात्म योग साधना