SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायश्चित्त का लक्षण राजवार्तिक में इस प्रकार दिया गया है-'प्रायः' शब्द का अर्थ-अपराध है और 'चित्त' शब्द का अभिप्राय विशोधन है; अर्थात् जिस प्रक्रिया अथवा साधना से अपराध की विशुद्धि होती है, वह प्रायश्चित्त है।' प्राकृत भाषा में प्रायश्चित्त के लिए 'पायच्छित्त' का प्रयोग हआ है। वहाँ भी 'पाय' का अर्थ पाप और उसको छेदन करने की प्रक्रिया को 'च्छित्त' बताया गया है। जो पाप का छेदन करता है, उसे नष्ट करता है, वह 'पायच्छित्त' है। यद्यपि तपोयोगी साधक बाह्य तपों-विशेष रूप से प्रतिसंलीनता तप की साधना-आराधना में इन्द्रियों को वश में करता है, क्रोध-मान आदि कषायों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है, मन-वचन-काय के योगों की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करता है, फिर भी साधक की आत्मा अनादिकाल से अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से ग्रसित है, संसाराभिमुखी है; रोकते-रोकते भी मन रूपी सारथी काया रूपी रथ को अशुभ मार्ग की ओर दौड़ाने की प्रवृत्ति कर बैठता है; साधक जरा भी असावधान हुआ, थोड़ा भी प्रमाद आया, लगाम ढ़ीली हुई कि दुष्ट अश्व की भाँति मन कुमार्ग की ओर दौड़ा। यद्यपि साधक पूर्ण रूप से सावधान रहता है फिर भी प्रमाद के कारण कहीं न कहीं भूल हो ही जाती है, स्खलना हो जाती है। ____ तपोयोग में निरत साधक अपनी भूलों को पहचानता है, उन्हें समझता है, जानता है और उनकी शुद्धि का प्रयास करता है तथा भविष्य में उन भूलों को न करने का दृढ़ संकल्प करता है। भूल अथवा पाप-शोधन की संपूर्ण प्रक्रिया प्रायश्चित्त है। तपोयोगी साधक इस प्रक्रिया द्वारा प्रायश्चित्त तप की साधना-आराधना करता है। प्रायश्चित्त तप की आराधना के लिए आवश्यक है कि साधक का अन्तर्मानस सरल हो, पाप के प्रति उसके मन में घृणा व भय हो, और उसके अन्तर्हृदय में पाप-विशुद्धि की, अपनी आत्म-शुद्धि की तीव्र और उत्कट भावना हो, वही साधक प्रायश्चित्त कर सकता है। वही गुरु के समक्ष 1. अपराधौ वा प्रायः चित्तशुद्धिः। प्रायस् चित्तं-प्रायश्चित्तं-अपराध-विशुद्धिः। . -अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थ राजवार्तिक 9/22/1 2. पावं छिंदई जम्हा पायच्छित्तं त्ति भण्णइ तेण। -पंचाशक सटीक विवरण * आभ्यन्तर तप : आत्म-शुद्धि की सहज साधना * 259 *
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy