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________________ (2) दर्शनविनय - दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा सम्यग् दृष्टि सम्पन्न व्यक्तियों के प्रति आदरभाव प्रगट करता है। यह विनय वह दो रूपों में करता है - ( 1 ) शुश्रूषा (सेवा) विनय के रूप में और (2) अनाशातना विनय के रूप में। (1) अरिहन्त, ( 2 ) अरिहन्त प्ररूपित धर्म, (3) आचार्य, (4) उपाध्याय, (5) स्थविर, (6) कुल, (7) गण, (8) संघ, (9) क्रियावन्त, (10) सम आचार वाले, (11-15) पाँच ज्ञान के धारक - इन पन्द्रह की आशातना न करना, बहुमान करना और स्तुति करना, इस प्रकार अनाशातना विनय के ( 15 x 2 ) 45 भेद होते हैं। दर्शनविनय तप की आराधना करने वाला साधक 45 प्रकार की अनाशातना विनय करता है। ( 3 ) चारित्रविनय - सामायिक चारित्र, आदि जो 5 प्रकार के चारित्र हैं, उन चारित्रों के धारक चारित्रनिष्ठ जो चारित्रात्मा हैं, उनके प्रति साधक विनय करता है, वह चारित्रविनय है। ( 4 ) मनोविनय - मन को अकुशल वृत्ति से हटाकर पवित्र भावों में लगाना। साधक अपने मन को सदा पवित्र भावों में लगाता है, मनोविनय से वह मन:शुद्धि करता है । इस प्रकार ( 5 ) वचनविनय - वचन विनय तप की साधना द्वारा साधक अप्रशस्त वचन का प्रयोग न करके प्रशस्त वचन का प्रयोग करता है। इस तप की साधना के प्रभाव से साधक के वचनयोग की शुद्धि होती है। (6) काय विनय - ठहरना, चलना, बैठना, सोना आदि जितनी भी कायिक क्रियाएँ साधक करता है, उनमें उसकी विनम्रता और सरलता ही प्रगट होती है, अकड़ अथवा अभिमान नहीं । साधक के मनोविनय का स्पष्ट रूप उसकी वचनविनय और काय-विनय में प्रगट होता है। तथ्य यह है कि मनोविनय की अभिव्यक्ति वचन और काय में होती है। मन, वचन और काय की विनय साधक की तेजस्विता को बढ़ाती है, तीनों योगों की सरलता और ऋजुता के कारण उसकी आध्यात्मिक और चारित्रिक उन्नति होती है, बड़ी सहजता से वह आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ता है। * 262 अध्यात्म योग साधना
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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