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निर्जीव हो' यानी घास आदि एकेन्द्रिय, कीड़े-मकोड़े आदि त्रस जीवों से संकुलित न हो।
साधु यानी गृहत्यागी श्रमण साधक तो अनिकेत होता है, वह अपने आवास-निवास के लिए विवेकपूर्वक स्थान की तलाश करता है; किन्तु गृहस्थ योगी साधक को भी विविक्त शयनासन का सेवन करना चाहिए।
विविक्त शयनासनसेवना के विषय में ध्यानशतक में एक गाथा प्राप्त होती है
निच्चं चिय जुवइ पसु नपुंसक कुसील वन्नियं जइणो। ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालम्मि॥
-ध्यानशतक 35 अर्थात्-साधक सदा युवती, पशु, नपुंसक तथा कुशील (दुःशील) व्यक्तियों से रहित विजन (जन-रहित) स्थान में रहे, विशेषतः ध्यान काल में तो विजन स्थान में ही रहे।
विविक्त शयनासनसेवना का बहुत बड़ा वैज्ञानिक आधार है। यहाँ साधक को स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील व्यक्तियों से रहित, एकांत, शांत स्थान में निवास और ध्यान का जो आदेश दिया गया है, वह सर्वथा उचित और विज्ञानसम्मत है।
शास्त्रीय (जैन ग्रन्थों की) भाषा में यह सम्पूर्ण संसार परिणमन का संसार है; यहाँ प्रत्येक द्रव्य परिणमन कर रहा है; और आधुनिक विज्ञान की भाषा में यह सम्पूर्ण जगत विकीरणों, प्रकम्पनों और तरंगों का संसार है। यहाँ प्रकाश की तरंगें हैं, विद्युत तरंगें हैं, ध्वनि तरंगें हैं, रेडियोधर्मी तरंगें हैं और भी अनेक प्रकार की तरंगें हैं। ये तरंगें सम्पूर्ण सृष्टि में फैली हुई हैं। अचेतन द्रव्य (पुद्गल) की भी तरंगें हैं और चेतन द्रव्य की भी तरंगें हैं। चेतन द्रव्य (पशु-पक्षी, मनुष्य) के मनोभावों-मनोविकारों-सदसद्भावनाओं की तरंगें, इन सभी प्रकार की तरंगों में सर्वाधिक शक्तिशाली हैं। इसीलिए वे प्रकम्पन (Vibration) भी अधिक उत्पन्न करती हैं और वातावरण को तथा दूसरे व्यक्तियों को भी शीघ्र प्रभावित करती हैं।
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एगतमणावाए, इत्थी पसु विवज्जए। सयणासण सेवणया, विविक्त सयणासणं।।
-उत्तराध्ययन 30/28
*254 * अध्यात्म योग साधना *