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तपोयोगी साधक सर्वप्रथम मन की अकुशल प्रवृत्ति का निरोध करता है, किन्तु मन बिना किसी आलम्बन के टिकता नहीं, प्रवृत्ति करना उसका स्वभाव है, इसलिए साधक उसे कुशल प्रवृत्ति में लगाता है और फिर कुशल प्रवृत्ति से हटाकर उसे किसी एक ध्येय अथवा आलंबन पर स्थिर करता है, एकाग्र करता है। .
सद्प्रवृत्ति के अभ्यास से शिक्षित हुए मन को ही एकाग्र किया जा सकता है। जैसे जंगल से पकड़े हुए बन्दर को शिक्षित करने के बाद ही मदारी उससे अपनी इच्छानुसार काम करवा सकता है, उसी प्रकार तपोयोगी साधक भी शिक्षित मन को किसी एक आलम्बन पर टिका सकता है, स्थिर कर सकता है। यह आलम्बन कोई भी हो सकता है, यथा-पुद्गल स्कन्ध, शरीर का कोई अवयव, कोई रूप अथवा श्वास-प्रश्वासप्रेक्षा। किसी भी वस्तु को तटस्थ द्रष्टा के रूप में सतत देखने के अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है। . इसी प्रकार तपोयोगी साधक वचनयोग की साधना करता है। सर्वप्रथम वह अनिष्टकारी, मर्मवेधी, कठोर, निष्ठुर, हिंसाकारी भाषा से बचने का अभ्यास करता है और प्रयत्नपूर्वक मिष्ट, सर्वसाताकारी, हितकारी भाषा बोलता है। इस प्रकार अकुशल वचनयोग के निरोध तथा कुशल वचन के प्रयोग में शिक्षित और अभ्यस्त होकर साधक मौन का अवलम्बन लेता है। इस प्रकार वह वचनयोग का संयम करता है। __ मौन के अवलम्बन से पूर्व साधक प्रशस्त मनोयोग में पूर्णतया अभ्यस्त हो जाता है अन्यथा मौन काल में दुर्विचार मन में आने की संभावना रहती है। तपोयोगी साधक इस विषय में विशेष सावधान और जागरूक रहता है। ___ काययोग की साधना में साधक अपने संपूर्ण शरीर को स्थिर करने का अभ्यास करता है। वह शरीर की व्यर्थ चेष्टाएँ नहीं करता तथा साथ ही इन्द्रियों को भी गुप्त करता है। योगों को सावध योग में प्रवृत्ति करते ही समस्त अंग-उपांगों को कूर्म के सदृश संकुचित कर लेता है।
इस प्रकार तपोयोगी साधक योग प्रतिसंलीनता तप की आराधना द्वारा तीनों योगों को अपने वश में कर लेता है।
विविक्तशयनासन सेवना तपोयोगी साधक के लिए आवश्यक है कि वह एकान्त शान्त स्थान का सेवन करता रहे। स्थान ऐसा हो जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक न हों साथ ही वह स्थान
. * बाह्य तप : बाह्य आवरण-शुद्धि साधना * 253 *