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________________ योगप्रतिसंलीनता तप मन, वचन और काया-ये तीनों प्रवृत्ति के निमित्त हैं अतः योग कहे गये हैं। अकुशल मन तथा वाणी का निरोध करना, मन और वचन की कुशल प्रवृत्ति; एवं काय तथा शरीर के विभिन्न अवयवों की कुचेष्टा तथा व्यर्थ चेष्टा का निरोध और हाथ-पैर आदि सभी अंग-उपांगों को सुस्थिर कर, कछुए के समान अपनी सभी इन्द्रियों को गुप्त करके सुसमाहित होना, निश्चल होना, योग प्रतिसंलीनता है।' तपोयोगी साधक के लिए योग प्रतिसंलीनता तप की कुछ भूमिकाएँ हैं। मनोयोग प्रतिसंलीनता तप की-(1) अकुशल मन का निरोध, (2) कुशल मन की प्रवृत्ति और (3) मन की एकाग्रता-ये तीन भूमिकाएँ हैं। इसी प्रकार वचनयोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएँ है-(1). अकुशल वचन का निरोध, (2) कुशल वचन की प्रवृत्ति और (3) वचन की एकाग्रता अथवा मौन। काययोग प्रतिसंलीनता तप की भी तीन भूमिकाएँ हैं-(1). काय की अप्रशस्त प्रवृत्ति का निरोध, (2) प्रशस्त प्रवृत्ति करना और (3) काय की स्थिरता। योग प्रतिसंलीनता तप की आराधना करता हुआ साधक मन-वचन-कायइन तीनों योगों को सुसमाहित करता है। __ मनोयोग की साधना-मन सामान्यतः चंचल रहता है, वह स्थिर तो सिर्फ एकाग्र होने पर ही होता है; अन्यथा साधारणतया तो वह विभिन्न प्रकार के संकल्प-विकल्पों में ही उलझा रहता है। यहाँ तक कि जब मनुष्य निद्रा ले रहा होता है तब भी वह कल्पना लोक के, दुनिया भर के सैर-सपाटे कर रहा होता है जिसका प्रतिबिम्ब स्वप्न के रूप में प्रगट होता है। संसाराभिमुख और विषय-कषायों में अनादिकाल से प्रवृत्त होने के कारण मन की प्रवृत्ति सामान्यतया अप्रशस्त रहती है; शुभ या प्रशस्त प्रवृत्ति तो बहुत ही कम यदा-कदा होती है। 1. (क) औपपापिक सूत्र, तपोऽधिकार, सूत्र 30 (ख) भगवती सूत्र (25/7) में मन-वचन-योग प्रतिसंलीनता तप में दो बातें और बताई मणस्स वा एगत्तीभावकरणं-वइए वा एगत्तीभावकरण। * 252 * अध्यात्म योग साधना.
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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