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पर-दया में वह किसी अन्य प्राणी को कष्ट नहीं देता, पीड़ित नहीं करता, ऐसे वचन भी नहीं बोलता जो किसी के हृदय को वेध दें तथा स्व-दया में आर्त-रौद्रध्यान करके अपनी आत्मा को पीड़ित नहीं करता, विषय-कषायों की ज्वाला में नहीं जलता।
इस प्रकार वह स्वयं भी अभय रहता है और दूसरों को भी अभय देता है, सभी के सुख की कामना करता है और दुःखी एवं पीड़ितों के प्रति अनुकम्पाभाव रखता है।
समतायोग की दृष्टि से विचार किया जाये तो यह भावना समतायोग का हृदय है। शरीर में जो स्थान हृदय का होता है, वही कारुण्य भावना का समतायोग में है। समतायोग की साधना वही साधक कर सकता है जिसका हृदय कोमल हो, जो परदुःखकातर हो, दूसरे का दुःख देखकर पसीज जाये। इसके विपरीत कठोर हृदय वाला समतायोग की साधना कर ही नहीं सकता।
तीर्थंकर से बड़ा समतायोगी कौन होगा? वे भी संसार के सभी जीवों के प्रति दया भाव रखते हैं, और इसीलिए वे प्रवचन फरमाते हैं।'
अतः कारुण्य भावना के दृढ़ अभ्यास से साधक आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त करता है, जो अध्यात्मयोग का लक्ष्य है।
(4) माध्यस्थ भावना : विपरीतता में समत्व
(राग-द्वेषविजय की साधना) माध्यस्थ भावना का दूसरा नाम उपेक्षावृत्ति है। उपेक्षा का आशय है-राग-द्वेष न करना, अनुकूल एवं प्रतिकूल स्थितियों में सम रहना; अनुकूल में राग न करना और प्रतिकूल के प्रति द्वेष न रखना। सदैव उपेक्षावृत्ति तथा 'माध्यस्थ भावना में रमण करना।
माध्यस्थ भावना द्विमुखी है-यह राग पर भी विजय प्राप्त करती है और द्वेष को भी निर्मूल करती है। इस प्रकार दोनों ओर से शोधन एवं परिमार्जन करके आत्मा को शुद्ध एवं निर्मल बनाती है।
साधक माध्यस्थ भावना का अनुचिन्तन करता है कि ये अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों ही प्रकार की स्थितियाँ संयोगजन्य हैं और ये संयोग भी मेरे पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम हैं। इनमें हर्ष अथवा शोक क्यों करना; 1. सव्वजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिये।
-प्रश्नव्याकरण सूत्र, संवर द्वार
* भावनायोग साधना * 229 *