SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थापित करती है तथा आत्मौपम्य भाव को विकसित करती है। (2) प्रमोद भावना : गुण-ग्रहण की साधना आध्यात्मिक उन्नति और अध्यात्मयोग की साधना हेतु साधक के लिए आवश्यक है कि वह गुण ग्रहण करे। साधक गुण तभी ग्रहण कर सकता है, जब वह गुणी जनों के प्रति अनुराग रखे, उनके प्रति प्रशंसा और सन्मान के भाव रखे। प्रमोद भावना की साधना द्वारा साधक अपनी गुण-ग्रहण की क्षमता को विकसित करता है। गुणियों के प्रति अनुराग और उनके प्रति आदर-सन्मान के कारण उसके हृदय में भी वे गुण आ जाते हैं। इस भावना का अनुचिंतन करता हुआ साधक बार-बार उन गुणों का स्मरण करता है, गुणीजनों-गुरुजनों के प्रति विनय एवं भक्ति का भाव रखता है। इस विनम्रतापूर्ण भक्ति की भावना से उसमें अनेक सद्गुणों का विकास हो जाता है तथा उसकी चारित्रिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होती है। इसीलिए प्रमोद भावना को समतायोग का नेत्र कहा गया है। जैसे नेत्र सुन्दर-असुन्दर सभी वस्तुओं को देखते हैं, किन्तु आकर्षित सुन्दर के प्रति ही होते हैं; इसी प्रकार गुणदृष्टि वाला साधक गुणों के प्रति ही आकर्षित होता है, गुणों को ही ग्रहण करता है। यह गुण-ग्रहण ही प्रमोद भावना है। (3) कारुण्य भावना : अभय की साधना साधक न तो स्वयं कभी भयभीत होता है और न किसी अन्य को ही भयभीत करता है; वरन् वह अन्य भयत्रस्त, कष्ट से पीड़ित, दुःखी, आर्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखता है, उनकी हितचिन्ता करता है तथा चाहता है कि सभी प्राणी दुःख से मुक्त हों, सुखी रहें।' ___ कारुण्य भावना का बार-बार अभ्यास करने से साधक का हृदय दया की भावना से परिपूर्ण हो जाता है, उसके हृदय में वात्सल्य का सागर उमड़ने लगता है। वह स्व-दया और पर-दया-दोनों प्रकार की दया का पालन करने लगता है। 1. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत्।। *228 * अध्यात्म योग साधना*
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy