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________________ करुणाभाव एवं अविनीत जनों पर माध्यस्थभाव रखना चाहिये। इन चारों भावनाओं का पातंजल योगसूत्र' में भी विशद वर्णन हुआ है। आचार्य अमितगति का इन भावनाओं के बारे में प्रसिद्ध श्लोक हैसत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ! ॥ अर्थात्–समस्त सत्त्व (जीव, प्राणी, भूत) पर मैत्री हो; गुणीजनों के प्रति प्रमोद भाव हो - उनके गुणों के प्रति अनुराग और सन्मान की भावना रहे। दुःखी जीवों के प्रति करुणा की भावना रहे और जो मुझसे विरोध रखते हैं उनके प्रति उपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना रहे; अथवा प्रतिकूल प्रसंगों में भी राग-द्वेष से दूर तटस्थ रहूँ; मेरी आत्मा सदैव इस प्रकार चिन्तन करे । आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं को ध्यान को पुष्ट करने वाली बताया है—मैत्री - प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कर्तुं तद्धि तस्य रसायनम् ॥ - योगशास्त्र 4/11 अर्थात्–मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना के साथ आत्मा की योजना करनी चाहिये - आत्मा के साथ इनका योग (संयोग) करना चाहिये । ये भावनाएँ रसायन के समान धर्मध्यान ( ध्यान ) को परिपुष्ट बनाती हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने इन भावनाओं का वर्णन भी ध्यान के अन्तर्गत किया है। आचार्य हरिभद्र ने जो आठ योगदृष्टियाँ बताई हैं, उनमें भी प्रथम दृष्टि का नाम उन्होंने मित्रा' दिया है। इन सब प्रमाणों के आधार पर मैंत्री आदि चारों भावनाएँ योग से मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। - पातंजल योगसूत्र, समाधिपाद, सूत्र 33 अर्थात् - मैत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद), उपेक्षा (माध्यस्थ) इन भावनाओं के आधार पर सुख, दुःख, पुण्य, अपुण्य (पाप) आदि विषयों का चिन्तन करने से चित्त में प्रसन्नता व आल्हाद की उत्पत्ति होती है- चित्त स्वच्छ हो जाता है अर्थात् चित्त की शुद्धि होती है । मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधत ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, 13 * 226 अध्यात्म योग साधना * 1. 2.
SR No.002471
Book TitleAdhyatma Yog Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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